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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तभी समझा सकता हूँ जब वह बड़ा हो जाये और वयस्कता प्राप्त कर ले। एक हद-तक उसमें इस शरीरकी और आसपासकी दुनियाकी आसक्ति पैदा होने देनी चाहिए। तभी इस शरीरके और दुनियाके क्षणभंगुर स्वरूपकी कल्पना उसे आसानीसे दे सकता हूँ और समझा सकता हूँ कि यह शरीर हमें भोगोंको भोगनेके लिए नहीं, बल्कि उनसे मुक्ति पानेके लिए मिला है। इसी तरह किसी भी मनुष्यके मनमें अहिंसा यानी पूर्ण प्रेमका सिद्धान्त जमानेके लिए वह मन प्राणवान् शरीर द्वारा अच्छी तरह विकसित होकर परिपक्व हो जाये, मुझे इसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए। अब मेरी मुश्किल यहाँ पैदा होती है कि इस विचारको व्यवहारमें किस तरह परिणत किया जाये? ‘प्राणवान् शरीर’ होनेका क्या मतलब है? हिन्दुस्तानियोंको शस्त्र- धारण करनेकी शिक्षा लेनेके लिए किस सीमातक जाना पड़ेगा? हर एक व्यक्तिको यह तालीम लेनी पड़गी या इतना ही पर्याप्त होगा कि यदि स्वतन्त्रताका वातावरण उत्पन्न हो जाये तो लोगोंमें हथियार उठाये बिना भी अपने आस-पासके वातावरणके प्रभावसे ही आवश्यक वैयक्तिक साहस आ जायेगा? मैं मानता हूँ कि दूसरा विचार सही है, और इसीलिए मौजूदा परिस्थितिमें जब मैं हर एक हिन्दुस्तानीसे सेनामें भरती होनेके लिए कहता हूँ, और साथ-साथ सदा उसे यह बताता रहता हूँ कि जो सेनामें भरती होते हैं, वे खूनकी प्यास बुझानेको नहीं, बल्कि मौतके प्रति निर्भयता सीखनेके लिए भरती होते हैं तो मुझे लगता है कि मैं बिलकुल ठीक कर रहा हूँ। सर हेनरी वेनका यह कथन देखो। उसे मॉर्लेके संस्मरण (खण्ड २) से उद्धृत करता हूँ:

दुनियाकी महान् जातियोंके जीवनमें मृत्युका बहुत ऊँचा स्थान है। .... बहादुर और उदारचित्त मनुष्यका यह गुण ही है कि वह कुछ चीजोंको प्राणोंसे ज्यादा महत्त्व देता हो, और वे चीजें ऐसी हों जिनके बारेमें मनुष्यके मनमें कोई शंका न हो और जिनके लिए उसे मरनेसे भय न हो। ... सच्ची स्वाभाविक बुद्धि मृत्युको जीवनका चरम लक्ष्य मानकर अच्छे ढंगसे मरनेको कला सीखनमें लगी रहती है। सचमुच जिसने अच्छी तरह मरना सीख लिया, उसने अपना जीवन व्यर्थ गँवाया। यह जीवनका सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व और सबसे बड़ा कर्त्तव्य है। जिसे मरनेकी कलाका ज्ञान हो गया है, उसीको स्वतन्त्रताका ज्ञान हुआ है, वही सच्ची मुक्त-दशामें रह सकता है। वह किसीसे डरता नहीं। वह अच्छी तरह सन्तोष और शान्तिसे जीवन बिता सकता है। ... जब जीवन भारस्वरूप बन जाये, तब यह समझ लेना चाहिए कि मरनेका सही अवसर आ गया है। उस समय मृत्यु आशीर्वादके समान है और जीवनमें कोई सार नहीं रह जाता।

फिर मॉर्ले कहता है: “जब उसका समय आ गया, तब टॉवर हिलपर चढ़ते समय वेनकी चाल उसके शब्दों जैसी ही शानदार और दृढ़ थी।”

सैनिक-भरतीके सिलसिलेमें किये गये अपने हर एक भाषणमें एक सैनिकके कर्त्तव्यके इस भागपर मैंने सबसे अधिक जोर दिया है। मेरा एक भी भाषण ऐसा नहीं हुआ, जिसमें मैंने कहा हो कि “चलो, हम जर्मनोंको मारनेके लिए चलें।” मेरे सभी भाषणोंकी ध्वनि यही है कि “हम भारत और साम्राज्यकी खातिर लड़ाईमें जायें और मरें।”