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पत्र: सी० एफ० एन्ड्रयूजको

मेरी माँगके जवाब में खूब अधिक भरती हो जाये और हम सब फ्रांसमें जाकर लड़ाईका पलड़ा जर्मनीके विरुद्ध बदल सकें, तो मेरा खयाल है कि भारतको यह अधिकार प्राप्त हो जायेगा कि उसकी बात सुनी जाये, और तब भारत स्थायी शान्ति स्थापित करा सकेगा। अब आगे कल्पना करो कि निर्भय मनुष्योंकी सेना खड़ी करनेमें मैं सफल हो जाऊँ और ये लोग खाइयोंमें पहुँच जायें और प्रेमपूर्ण हृदयोंसे अपनी बन्दूकें पटककर जर्मनोंको चुनौती दें कि आओ हमपर―अपने मानव-बन्धुओंपर―गोली चलाओ, तो मैं कहता हूँ कि जर्मन-हृदय भी पिघल जायेगा। मैं जर्मनोंपर यह आरोप लगाने से इनकार करता हूँ कि वे केवल राक्षसी वृत्तिवाले ही हैं। इस प्रकार इन सब बातोंका अर्थ यह हुआ कि अपवादस्वरूप परिस्थितिमें एक आवश्यक बुराईके तौरपर युद्धका आश्रय लेना पड़ सकता है। हमारा यह शरीर भी तो आखिर एक अनावश्यक बुराई ही है। अगर हेतु शुद्ध हो, तो युद्धको भी मानव जातिकी भलाईमें बदला जा सकता है। कोई अहिंसावादी युद्धके प्रति तटस्थता नहीं बरत सकता। उसे अपना चुनाव करना ही होगा। चाहे वह युद्धमें सक्रिय सहयोग दे या सक्रिय रूपसे उसका विरोध करे।

तुम अपना यह डर बिलकुल छोड़ दो कि मैं राजनीतिक झगड़ों और प्रपंचोंमें फँस जाऊँगा। ये मेरे वशकी चीजें नहीं हैं, इस समय इनमें पड़नेकी मेरी बिलकुल इच्छा नहीं है, और दक्षिण आफ्रिकामें भी इनमें कोई रुचि नहीं थी। वहीं मैं राजनीतिक हलचलमें पड़ा जरूर। उसका कारण यह था कि उसमें मुझे अपनी मुक्ति जान पड़ी। मॉण्टेग्युने मुझसे कहा था, “देशकी राजनीतिक हलचलमें आपको भाग लेते देखकर मुझे आश्चर्य होता है।” मैंने तत्काल जवाब दिया था: “आप मुझे इसमें देख रहे हैं, क्योंकि मैं अपना धार्मिक और सामाजिक कार्य इसके बिना नहीं कर सकता। मेरा खयाल है कि अपने जीवनके अन्ततक मेरा यही जवाब रहेगा।”

अब तुम यह शिकायत नहीं कर सकोगे कि मैंने तुम्हें पत्रके नामपर पर्ची लिखी है। पत्रके बजाय मैंने तो तुम्हारे सिर एक लम्बा-चौड़ा निबन्ध ही ठेल दिया है, परन्तु तुम्हें यह बताना जरूरी था कि इस वक्त मेरे मनमें क्या चल रहा है। यह सब पढ़कर इसपर अपनी राय देना और मेरे जो विचार तुम्हें गलत मालूम हों, उनकी निर्दयताके साथ चीरफाड़ करना।

मैं आशा रखता हूँ कि तुम्हारा स्वास्थ्य सुधर रहा होगा और तुममें शक्ति आ रही होगी। यह कहनेकी जरूरत शायद ही हो कि जब तुम्हारी तबीयत सफर करने लायक हो जाये, तब हम सब तुम्हारे यहाँ आनेसे प्रसन्न होंगे।

सस्नेह,
मोहन

[अंग्रेजीसे]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
सौजन्य: नारायण देसाई