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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


हम विचार कर चुके हैं। इससे बँगलाकी अयोग्यता सिद्ध नहीं होती। हम चाहें तो इसे प्रयत्न करनेवालोंकी अयोग्यता या अनास्था कह सकते हैं।

उत्तरमें हिन्दी भाषाका विकास तो हो रहा है, फिर भी उसे शिक्षाका माध्यम बनानेका निरन्तर प्रयत्न केवल आर्यसमाजियोंने ही किया मालूम होता है। गुरुकुलोंमें यह प्रयत्न जारी है।

मद्रासमें देशी भाषाओंके जरिये शिक्षा देनेका आन्दोलन कुछ ही वर्षोंसे शुरू हुआ है। तमिलोंकी अपेक्षा तेलगू भाषा-भाषी अधिक जाग्रत हैं। शिक्षित तमिलोंपर अंग्रेजीका इतना ज्यादा असर हो गया है कि उनमें तमिल भाषाके माध्यमसे अपना काम चलानेका उत्साह नहीं रहा। तेलगू भाषी भागमें अंग्रेजी शिक्षा इतनी नहीं फली है। इसलिए तेलगू-भाषी मातृभाषाका उपयोग ज्यादा कर रहे हैं। तेलगू भाषी भागमें सिर्फ तेलगूके जरिये शिक्षा देनेका प्रयोग किया जा रहा है। इतना ही नहीं, तेलगू भाइयोंने भाषाके आधारपर प्रान्त-निर्माण करनेका आन्दोलन भी शुरू किया है। इस विचारका प्रचार कुछ समयसे ही शुरू हुआ है। फिर भी उनका प्रयत्न इतना साहसपूर्ण है कि थोड़े दिनोंमें हम उसे क्रियान्वित होता देखेंगे। उनके काममें कठिनाइयाँ बहुत है, परन्तु उनमें दूर करनेकी शक्ति है, उनके नेताओंकी मुझपर ऐसी ही छाप पड़ी है।

महाराष्ट्रमें भी यह प्रयत्न चल रहा है। साधुचरित प्रोफेसर कर्वे[१] इस प्रयत्नके समर्थक हैं। भाई नायकका भी यही दृष्टिकोण है। अनेक निजी पाठशालाएँ इस काममें लगी हुई है। प्रोफेसर बीजापुरकरने[२] बहुत कष्ट उठाकर अपने साहसपूर्ण प्रयत्नको फिर आरम्भ किया है और कुछ समयमें हम देखेंगे कि उनकी पाठशाला सुचारु रूपसे चल निकली है। उन्होंने पाठ्य पुस्तकें लिखनेकी योजना बनाई थी। कुछ पुस्तकें छप गई हैं और कुछ लिखी हुई तैयार हैं। उस पाठशालाके शिक्षकोंने कभी अनास्था नहीं दिखाई। अगर दुर्भाग्यसे उनकी पाठशाला बंद न हुई होती, तो आज यह प्रश्न उठता ही नहीं कि मराठीके जरिये ऊँची शिक्षा दी जा सकती है या नहीं।

गुजरातमें भी मातृभाषाके जरिये शिक्षा देनेका आन्दोलन शुरू हो चुका है। इस बारेमें हमें रा॰ ब॰ हरगोविन्ददास कांटावालाके[३] लेखसे जानकारी मिल सकती है। प्रो॰ गज्जर[४] और स्वर्गीय दीवान बहादुर मणिभाई इस विचारके नेता माने जा सकते हैं। यह विचार करना हमारा काम है कि हमें इन लोगोंके बोये बीजोंके अंकुरित होनेमें मदद देनी चाहिए या नहीं। मुझे तो लगता है कि इसमें जितनी देर हो रही है, उतना ही हमारा नुकसान हो रहा है।

 
  1. धोंडो केशव कर्वे (१८५८-१९६२); समाज-सुधारक, भारत रत्न, भारतीय महिला विश्वविद्यालय (इंडियन वीमेन्स यूनिवर्सिटी) के संस्थापक।
  2. विष्णु गोविन्द वीजापुरकर (१८६३-१९२६); मराठी साहित्य, स्वदेशी व राष्ट्रीय शिक्षणके प्रचारक।
  3. १८३९-१९३१; बड़ौदा रियासतके लोक-शिक्षा निदेशक। देखिए, खण्ड ५, पृष्ठ ९४-९५।
  4. त्रिभुवनदास कल्याणदास गज्जर (१८६३-१९२०); रसायन-शास्त्रके प्रोफेसर, बड़ौदा कालेज, बड़ौदा, पश्चिम भारतमें रसायन उद्योगके प्रणेता।