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पत्र: हनुमन्तरावको


मैं जानता हूँ कि सैनिक-भरतीके मेरे कामसे मित्रोंको अलग-अलग कारणों से―राजनीतिक और धार्मिक कारणोंसे भी―दुःख होता है। फिर भी जानता हूँ कि मेरे इस कामकी निन्दा करके दोनों प्रकारके मित्र भूल कर रहे हैं। बड़े लम्बे अर्सेसे मेरे विचार देशके सामने हैं। परन्तु महत्त्व तो सदैव मनुष्यके कामोंका है, उसकी वाणीका नहीं। किन्तु इसी कारण मुझे उनकी आपत्तियोंको बिना विचारे रद नहीं कर देना चाहिए। वे जो-कुछ कहते हैं ईमानदारीसे कहते हैं और प्रेमके कारण ही मेरी आलोचना करते हैं। मैं स्वयं अहिंसाके सिद्धान्तोंका पालन करते हुए भी लोगोंको अहिंसाका ककहरा भी नहीं समझा पाया; अपनी यह असफलता मैंन देखी है और इससे में इस निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि हर जीव-हत्या हिंसा नहीं है। कभी-कभी तो अहिंसाके पालनके लिए मारनेकी भी जरूरत पड़ सकती है। एक राष्ट्रकी हैसियतसे हम मारनेकी सच्ची शक्ति खो बैठे हैं। यह तो स्पष्ट है कि जो मारनेकी शक्ति गँवा बैठा हो, वह अहिंसाका आचरण नहीं कर सकता। अहिंसा अत्यन्त ऊँचे प्रकारका त्याग समाया हुआ है। जो जनता कमजोर और कायर हो गई हो वह त्यागका यह भव्य आचरण नहीं कर सकती; ठीक वैसे ही जैसे चूहेके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि उसने बिल्लीको मारनेकी शक्तिका त्याग किया है। यह बात भयंकर भले लगे, परन्तु बिलकुल सच है कि हमें अनवरत और सायास, विचारपूर्वक इस शक्तिको पुनः प्राप्त करना होगा। और उसे प्राप्त करनेके बाद ही हम स्वयं इस शक्तिका सतत् त्याग करके, हिंसाकी यातनाओंसे दुनियाको मुक्त कर सकेंगे। आश्रमके सदस्योंको भी अहिंसाके बारेमें अच्छी तरह समझानेमें अपनेको असफल पाकर मुझे जो दुःख होता था, उसे मैं शब्दोंमें व्यक्त नहीं कर सकता। ऐसी बात नहीं थी कि वे मेरी बात ध्यानपूर्वक न सुनते हों, लेकिन उस वक्त मुझे ऐसा आभास होता था और अब तो मैं साफ देख सकता हूँ कि सत्यको ग्रहण करनेकी उनमें शक्ति नहीं थी । मेरी बातें उनके लिए वैसी ही थीं, जैसे संगीतका ज्ञान न रखनेवालोंके आगे उत्तम संगीतका गाया जाना। परन्तु आज आश्रममें लगभग हरएक यह बात समझ गया है; और उनके मनमें इस ज्ञानकी प्रभा फूट पड़ी है कि अहिंसाका अर्थ अपने बलका ज्ञान रखते हुए त्याग करना है, निर्बलताके कारण त्याग करना नहीं। व्यवस्थित युद्ध और व्यक्तिगत लड़ाई दोनोंमें कोई भेद नहीं किया जा सकता। डाकुओंके मामलेमें भी संगठित विरोध और संगठित मार-काटका होना आवश्यक है। सर्वोत्तम योद्धा वही कहा जायेगा, जो घोर विपरीत परिस्थितियोंके सामने भी निर्भय खड़ा रहे। उस समय उसे अपनी मारनेकी शक्तिका विचार नहीं आता। बल्कि उसे यह विचार करके अपनी विजयका भान होता है कि यदि वह चाहे तो भागकर आसानीसे जान बचा सकता है, लेकिन वैसा न करके वह खुशीसे मरनेको तैयार खड़ा है। मैं निश्चित रूपमें मानता हूँ कि हमें अपने बच्चोंको आत्म-रक्षाकी कला सिखानी ही पड़ेगी। मुझे यह अधिकाधिक स्पष्ट प्रतीत होता है कि अगर हम आत्म-रक्षाकी शक्ति पुनः प्राप्त न कर सके, तो युगोंतक स्वराज्यके लिए अयोग्य रहेंगे। इसपर से आत्म-विश्वास और भारतके विकासके बारेमें अपनी कितनी ही धारणाओंपर मुझे पुनर्विचार और परिवर्तन करना पड़ा है। आज जितना मैंने कहा है, उससे ज्यादा चर्चा यहाँ नहीं करूँगा। तुम ज्ञानके सच्चे खोजी हो। मेरी हार्दिक इच्छा है कि तुम अहिंसाका यह