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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नीयतपर संदेह किया जाता है। इसीलिए इन हितोंके पक्षमें योजनामें सुविचारित संरक्षण दिखाई देते हैं। मेरे खयालमें सबसे ज्यादा जरूरत इस बातकी है कि इन स्वार्थीके सम्बन्धमें एक सच्चा, खरा और सीधा समझौता कर लिया जाये। व्यक्तिगत रूपसे तो मैं इस विचारका हूँ कि अकेले अंग्रेजोंकी या अंग्रेजों और भारतीयों दोनोंकी मिली-जुली चतु- राईसे कोई चमत्कारिक कानून बनाने की अपेक्षा मेरा उपर्युक्त सुझाव अधिक महत्त्वपूर्ण है। निश्चय ही में अत्यन्त विनम्र भावसे, परन्तु उतनी ही दृढ़तासे, यह कहना चाहता हूँ कि इन स्वार्थोका खयाल भारतके हितोंके बाद ही किया जायेगा। इसलिए मेरा निवेदन है कि जहाँतक ये स्वार्थ भारतकी सामान्य प्रगतिसे असंगत हैं वहाँतक निश्चय ही ये जोखिममें हैं। इस प्रकार यदि मेरी चलती तो मैं फौजी खर्चमें कमी कर देता। मैं अपने उद्योगोंसे स्पर्धा करनेवाले विदेशी मालपर भारी कर लगाता और इस प्रकार देशी उद्योगोंकी रक्षा करता। मैं देशके प्रशासनमें अंग्रेज अधिकारियोंकी संख्या कमसे-कम कर देता में केवल उन्हींको रहने देता जिनकी आवश्यकता भारतीयोंको प्रशिक्षण या पथप्रदर्शन देनेके हेतु पड़ती। मेरे खयालसे उन्हें हमारा ध्यान खींचनेका केवल इतना ही अधिकार है कि उन्होंने हमारे देशको जीता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। हममें राष्ट्रीय अपनत्वकी भावना आते ही और अपनी खोई हुई चीजको फिर ले लेनके अधिकारके प्रयोगकी शक्ति पैदा होते ही उनका यह अधिकार अवश्य ही समाप्त हो जायेगा। वे स्वयं विजेताके नाते अपना कोई दावा पेश नहीं करते। उनकी यह बात सराहनीय है। इंडियन सिविल सर्विस की कर्त्तव्यपरायणता और महान् संगठन-शक्तिकी जो प्रशंसा की गई है, उससे सभी बिना किसी कठिनाईके सहमत हो सकते हैं। जहाँतक आर्थिक पुरस्कारका सवाल है, इन पदोंपर अंग्रेजोंको बड़ी लम्बी-लम्बी तनख्वाहें मिलती रही हैं और इसके अतिरिक्त हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता स्वयं उनके सद्गुणोंका अनुकरण करके सर्वोत्तम रूपमें प्रकट कर सकते हैं।

संभवतः सुधारकी ऐसी किसी योजनासे भारतको लाभ नहीं पहुँच सकता जिसमें इस बातका ध्यान न रखा गया हो कि वर्तमान शासनका उच्चस्तरीय खर्च अनापशनाप बढ़ा हुआ है और वह शासन इतना महँगा है कि उससे देश बर्बाद हो रहा है। मेरी दृष्टिमें अगर भारतको कानून व्यवस्था और सुशासनकी इतनी कीमत चुकानी पड़े कि देशवासी बेहद गरीब हो जायें तो मैं कहूँगा कि ऐसा शासन हमें अत्यधिक महँगा पड़ रहा है। सुधारोंके अन्तर्गत बनाई जानेवाली परिषदोंका मार्गदर्शक सूत्र यह न होना चाहिए कि इस विकासशील देशकी बढ़ती हुई आवश्यकताको देखते हुए कर बढ़ाये जायें, बल्कि यह होना चाहिए कि उसका आर्थिक बोझ हलका किया जाये; क्योंकि आर्थिक बोझसे देशके महत्त्वपूर्ण विकासको बुनियाद कमजोर हो रही है। यदि इस बुनियादी तथ्यको स्वीकार कर लिया जाये तो हमारे हेतुके बारेमें तनिक भी सन्देहकी जरूरत नहीं रहती और में कोई भी जोखिम उठाये बिना कह सकता हूँ कि अन्य सभी मामलोंमें अंग्रेजोंके निहित स्वार्थ भारतीयोंके हाथोंमें पूर्ण रूपसे वैसे ही सुरक्षित रहेंगे जैसे वे स्वयं उनके हाथों में है। ऊपर कही हुई मेरी बातसे स्पष्ट है कि कांग्रेस-लीग योजनाके द्वारा ज यह माँग पेश की गई है कि सिविल सर्विसकी ऊँची नौकरियोंमें से आधी भारतीयोंको तुरन्त दी जानी चाहिए, हमें उसको मनवानेके लिए जोर देना चाहिए। मेरा यह कथन