३४७. पत्र: जमनालाल बजाजको
नडियाद
आषाढ़ शुक्ल १० [जुलाई १८, १९१८]
मैं मुंबईसे कल रातको आया। भ्रमणमें रहनेसे पत्र आजतक नहिं लीख सका। आपका पत्र आनेसे मैं निचित हो गया हूं। भाई अंबालालजीने रु० ५००० भेज दीये हैं और भाई शंकरलाल बेंकरने रु० ४००० दीये हैं। जिन भाई मेरी भिक्षाका अनादर नहीं करते हैं उनको मेरी जरुरयत सुनानेमें मुझको संकोच लगता है [पर] न सुनाना अशक्य होता है। इसलीये मेरी तिव्र इच्छा है कि जब मेरी भिक्षा स्वीकारनेमें हरज हो उस वखत अस्वीकार करनेसे मेरी पर अनुग्रह होगा।
आपका दर्द तो अब तद्दन नष्ट हुआ होगा।
आपका
मोहनदास गांधी
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल पत्र (जी० एन० २८४०) की फोटो-नकलसे।
३४८. पत्र: आनन्दशंकर ध्रुवको
[नडियाद]
जुलाई १८, १९१८
आपका पत्र मिला। क्या आपको अपने विस्तृत अध्ययनमें कोई ऐसी दवा मिली ही नहीं, जिससे चाहे हमारे सगे-सम्बन्धी मरें, बीमार हों, हमारे हाथपर रेलगाड़ीकी खिड़की गिरे, और हमारे पैरमें ठोकर लगे लेकिन हम समस्त दुःखोंसे मुक्त रहें और केवल सुख ही अनुभव करें? क्या सचमुच अध्ययनसे प्राप्त कष्टमें कुछ कमी हो सकती है, या वैद्य ही उसमें कमी कर सकता है? इसका जवाब जब आप अच्छे होकर मिलेंगे, तभी दीजिएगा। और मजदूर तो धैर्यवान् हैं, इसलिए प्रतीक्षा करेंगे। और अगर प्रार्थना फलती हो, तो जरूर ऐसी प्रार्थना कीजिए कि आपका हाथ तुरन्त फिर काम करने लगे। इस बीच उनमें से अधिकतर तो पैंतीस नहीं, बल्कि पचास फीसदी वृद्धि लेने लगे हैं। अम्बालालभाई कह रहे थे कि वे आपके कानमें कुछ बात कहेंगे। उन्होंने मेरे कानमें तो कह दी है। परन्तु आप तो उनके मुँहसे ही सुनेंगे तो अच्छा होगा।
मोहनदासके वन्देमातरम्
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४