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३४९. पत्र: जगजीवनदास मेहताको

[नडियाद]
जुलाई १८, १९१८

तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारे कोट और रुपयोंकी चोरी सुनकर अफसोस हुआ। ‘दुबले और दो असाढ़’ वाली बात हो गई। अनाथाश्रममें कोई चोर है। दो-तीन बार ऐसा हो चुका है। किसीको चाहिए था कि तुम्हें चेता देता, परन्तु किसीको नहीं सूझा।

तुम्हारा बुखार बिलकुल चला गया होगा। भाई जीवराजको आज[१] ही पत्र लिख पाया हूँ । वह भी इसके साथ है। ठीक लगे, तो भेज देना।

तुम्हारे व्यापारकी स्थितिकी कुछ कल्पना मुझे इस बार हुई। तुम जिस रुपयेसे व्यापारमें लगे हुए हो, वह मुझे दुःखकर प्रतीत होता है। मेरी सलाह किसी भी कामकी हो, तो तुम आज ही अपना व्यापार समेट लो, रुपये जिससे लिये हैं, उसे लौटा दो और कोई नौकरी तलाश कर लो। तुम्हें नौकरी मिलनेमें तो अड़चन पड़ ही नहीं सकती। तुम्हें केवल सादा जीवन बिताना हो, तो आश्रम खुला ही है। मेरा आग्रह नहीं है। संसार जिसे पुरुषार्थ मानता है, वह तुम्हें करना हो तो भले ही करो, परन्तु करो अपने ही बलपर। इस काममें तुम जितनी ढिलाई करोगे, तुम्हें उतना ज्यादा पश्चात्ताप होगा।

सब जगह सभी अपने ही हाथों दुःख भोगते हैं। किन्तु मैं जैसे-जैसे तुम्हारे कुटुम्ब-जालको समझ रहा हूँ, वैसे-ही-वैसे तुम सबके बारे में इस बातको अधिक अनुभव करता हूँ। उससे तुम छूटो। साहस करनेपर सबके हिस्सेमें जो दुःख आता है, उतने से ही सन्तोष मानो। अधिक न उठाओ। सारे सम्बन्ध साफ रखो। बापा तो खुद ही दुःखके ढेर इकट्ठे करते हैं। वे जब धार्मिक जीवन बिताते हैं, तब उनमें इतनी लोलुपता क्यों है? ऐसी लोलुपताको तुम किस लिए प्रोत्साहन दो?...[२] यदि हम जितनी परवाह अफवाहोंकी करते हैं, उतनी अपने अन्तरके विचारोंकी करें, तो हम देवताओंसे भी अधिक सुखी रहें। हम घरमें विद्यमान सुखको न पहचानकर चारों तरफ ढूँढ़ते हैं। तुम ऐसी ढूँढ़-खोज में क्यों पड़ते हो?

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४
 
  1. गांधीजीके मित्र और चिकित्सक।
  2. मूलमें यहाँ कुछ शब्द छूटे हुए हैं।