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३५०. पत्र: श्रीमती जगजीवनदास मेहताको

नडियाद
जुलाई १८, १९१८

प्यारी बहन,

तुम्हारा दुःख मुझसे नहीं देखा गया; फिर भी मैंने यह समझ लिया कि जो निर्दोष आनन्द मैंने तुममें देखा, वह न तो बापामें[१] देखा और न भाई जगजीवनदासमें। इससे मेरा हृदय छिद गया है और मैंने भाई जगजीवनदासके नाम पत्र[२] लिखा है। उसे तुम दोनों हृदयस्थ करो, खूब सोचो और बादमें साथ-साथ पुरुषार्थ करो। यह पत्र तुम दोनोंके लिए है।

[तुम्हारा,]

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४
 

३५१. पत्र: कोतवालकी बहनको[३]

नडियाद
आषाढ़ सुदी १० [जुलाई १८, १९१८]

प्यारी बहन,

आपका कार्ड मिला। भाई गोगटेका पत्र नहीं मिला। जान पड़ता है वह मेरे

भिन्न-भिन्न पतोंपर भेजा जाकर कहीं खो गया है। मैंने जब आपको पत्र लिखा था तब मैं अपनी लड़ाई सम्बन्धी प्रवृत्तिमें नहीं पड़ा था। मैं नहीं जानता कि अब में आश्रममें कब आकर रहूँगा। मैं समझता हूँ कि यदि आप मेरी अनुपस्थितिमें आश्रममें आयें तो आपको कष्ट हो सकता है और मेरा विश्वास है कि आपकी उपस्थितिसे आश्रमवासियोंको भी संकोच होगा। आश्रममें फिलहाल जगह भी नहीं है। जितनी मुझे उम्मीद थी उतनी तेजीसे मकान नहीं बन सके हैं। इसलिए मैं आपको आनेके लिए कहनेमें हिचकिचाता हूँ। लेकिन यदि आप आश्रमकी कठिनाइयोंको सहन कर सकें, मानव-स्वभावको उसके विभिन्न रूपोंमें स्वीकार करनेको तैयार हों और आश्रममें मेरी उपस्थितिको भी जरूरी न समझती हों तो आप आ सकती हैं। भाई कोतवाल वहाँ हों तो उनसे सलाह करके मुझे

 
  1. जगजीवनदासके पिता।
  2. देखिए पिछला शीर्षक।
  3. साधन-सूत्रमें पानेवालाका नाम नहीं है परन्तु गोगटे और कोतवालके उल्लेखसे ऐसा लगता है कि यह कोतवालकी बहनको लिखा गया था। देखिए “पत्र: रामभाऊ गोगटेको”, १७५-१९१८।