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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करता हूँ, तब यह संख्या मुझे बहुत कम लगती है। लोगोंकी स्थितिका खयाल करता हूँ तो मुझे महसूस होता है कि इतने आदमी तैयार हो गये, यह भी आश्चर्यकी बात है। जिस वर्गने कभी लड़ाईमें भाग नहीं लिया और जिसने किसीपर लाठी तक नहीं उठाई, उस वर्ग के लोग फौजमें भरती हुए हैं। तब जो वर्ग लड़ने के योग्य है, उसे तैयार किया जा सके, तो अपार सेना खड़ी की जा सकती है। समझदार वर्गकी कमियाँ इस अवसरपर साफ दिखाई देती हैं। मैं ‘शिक्षित’ के बजाय ‘समझदार’ शब्दका प्रयोग कर रहा हूँ। ऐसे पुरुष और स्त्रियाँ अपने कर्त्तव्यका पालन करें, तो जो वर्ग कुदरती तौरपर लड़ाईमें जानेके लायक हो, उसपर असर डाल सकते हैं। मेरे अनुभवसे समझदार वर्गकी बहुत बड़ी कमजोरी साबित होती है। वे राष्ट्रीय काममें पूरी दिलचस्पी नहीं लेते, इसलिए भरतीका काम कठिन हो जाता है। अतएव जिन समझदार लोगोंके हाथ में यह पत्रिका आये, वे अगर इस काममें विश्वास रखते हों, तो तैयार होकर इस महान् कार्यके लिए अपढ़ और नासमझ लोगोंको प्रेरित करें।

किन्तु समझदार लोगोंमें मैंने ऐसे भी देखे हैं, जिन्हें इस कार्यमें विश्वास नहीं है। यह पत्रिका उन्हींके लिए लिखी गई है। उनसे मेरी प्रार्थना है कि वे पत्रिकाको ध्यानपूर्वक पढ़ें। समझदार आदमीका काम है कि वह प्रस्तुत परिस्थितिका खयाल करके अपने कर्तव्यकी रूपरेखा तैयार करे। अगर हम अंग्रेजोंसे अपना सम्बन्ध तोड़ना चाहते हों, तब तो हमें अवश्य ही मदद नहीं देनी चाहिए। यह कहनेवाले लोग थोड़े ही पाये गये हैं कि इस सम्बन्धको हम तोड़ना चाहते हैं। यह तो सभी समझ सकते हैं कि आजकी स्थितिमें सम्बन्ध तोड़नेके हिमायती भी सम्बन्ध नहीं तोड़ सकते। कुछ भी हो, इस समय हमारा उद्धार अंग्रेजोंकी सहायता करनेमें ही है। उनकी मदद करना हमारी अपनी मदद करनेके बराबर है। जहाँ हमारा और उनका स्वार्थ एक ही दिशामें जाता है, वहाँ एक-दूसरेके दोषोंका चिन्तन करके परस्पर मदद न देना बड़ी नादानीका काम होगा। हम जिस गाँवमें रहते हों, उसपर बाहरी शत्रुका धावा हो और उससे सारे गाँवको नुकसान होनेकी सम्भावना हो, तो हम आपसी शत्रुताको भूल जायेंगे और आये हुए संकटको दूर करनेके लिए गाँवमें रहनेवाले शत्रुकी मदद करेंगे और डाकुओंको निकाल बाहर करेंगे। इस समय इस युद्धमें यही हो रहा है। इस समय समान विपत्तिका सामना करना हमारे लिए जरूरी ही नहीं बल्कि हमारा फर्ज भी है। दूसरी शंका यह उठाई गई है कि हम सर्वोत्तम लोगोंको युद्धमें भेजकर मरवा डालें, यह कहाँका धर्म है? इस तरह तो सारे स्वराज्यवादी मारे जायेंगे, फिर हम स्वराज्य कैसे लेंगे? यह शंका अगर बुद्धिमान समझे जानेवाले लोगोंने न की होती, तो मैं इसे हास्यास्पद कहता। यह तो स्पष्ट है कि यदि भारतमें पाँच ही लाख स्वराज्यवादी हों, तो हम स्वराज्यके लायक नहीं हैं। परन्तु शंका करनेवाले लोगोंका कहना यह है कि स्वराज्यवादी कितने ही हों, स्वराज्यका आन्दोलन करनेवाले समझदार लोग तो पाँच लाखसे भी कम हैं। यह सच है। सिर्फ एक बात भुला दी जाती है। पाँच लाख मरनेवाले लोगोंको तैयार करनेमें पचास लाख लोगोंके कानोंमें युद्ध और स्वराज्य वगैराकी बातें पहुँचेंगी। हम पाँच लाख स्वतन्त्र लोगोंको तैयार करना चाहते हैं। वे समझकर अपनी इच्छासे जायेंगे। उन्होंने अपने मित्रों और सगे-सम्बन्धियों वगैरासे सलाह ली होगी, यानी जानेवाले पाँच लाख