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सैनिक-भरतीकी अपील

आदमी अपने पीछे अपने जैसे लाखोंको छोड़ जायेंगे। सच बात तो यह है कि हम लड़ाई करने की शक्ति ही खो बैठे हैं और हमारी वीरताका नाश हो गया है। हममें अपनी स्त्रियोंकी रक्षा करने तक की शक्ति नहीं है। धर्मके नामपर हम कर्म (कर्त्तव्य) को गये हैं। दिन-दहाड़े देहातमें डाका पड़े, तो उसके विरुद्ध भी हम खड़े नहीं हो सकते। एक हजारकी आबादीमें आठ आदमी आकर लूटपाट करके चले जायें, ऐसी स्थिति सारी दुनिया में भारतमें ही सम्भव है। शरीरसे गाँववाले इतने दुर्बल कदापि नहीं हैं कि वे आठ आदमियोंको भी न खदेड़ सकें। परन्तु उन्हें मौतका बड़ा डर है। ऐसी लड़ाई में पड़कर अपनी जान जोखिममें कौन डाले? डाकू लूटते हैं तो लूट लें। यह तो सरकारका काम है, वही निबटेगी, यह सोचकर वे घरमें घुसे रहते हैं। पड़ोसीका घर जले, उसकी इज्जत लुटे और माल जाये, तो भी इन तत्त्वज्ञानियोंको परवाह नहीं। जबतक इस तत्त्वज्ञान (अन्धकार) का नाश नहीं हो जाता, तबतक भारतमें सच्ची शान्ति नहीं होगी। स्वाभिमानी व्यक्तिके लिए यह स्थिति असह्य होनी चाहिए कि सरकारी या दूसरे सिपाही आयें, तभी गाँव बचे। ऐसी स्थितिसे बचनेका तात्कालिक उपाय हमारे हाथमें मौजूद है। सेनामें भरती होनेसे हमें हथियार चलाना आयेगा, हममें राष्ट्रीय भावना पैदा होगी और हम गाँवोंकी रक्षा करनेके योग्य बनेंगे।

हम चले जायेंगे, तो हमारे बाल-बच्चोंका क्या होगा? यह सवाल तो सभी पूछ सकते हैं। लड़ाई में जानेवाले लोगोंको हर महीने भोजन-वस्त्रके सिवा वेतन मिलता है; उन्हें कमसे-कम १८ रुपये मिलते हैं। योग्यतानुसार उनका दर्जा भी बढ़ता है और वेतन भी बढ़ता है। अगर किसीकी मृत्यु हो जाये, तो उसके बाल-बच्चोंका भरण-पोषण सरकार करती है। लड़ाईसे लौटनेवाले लोगोंको इनाम-इकराम दिया जाता है। मुझे विश्वास है कि अन्तमें जो आर्थिक लाभ सिपाहीगीरीमें है, वह दूसरे धन्धोंमें हरगिज नहीं मिलता।

परन्तु “ये लाभ तो अंग्रेजोंको ही मिल सकते हैं, हमें कहाँ मिलते हैं?” ―मैंने लोगोंको ऐसा भी कहते सुना है। उनसे मुझे कहना है कि हमारे उद्योगसे पाँच लाख समझदार आदमियोंकी सेना बन जाये और उन्हें अंग्रेजोंके बराबर ही हक न मिलें, यह हो नहीं सकता। ऐसा हो, तो इससे उन पाँच लाख लोगों और नेताओंकी ही कमी साबित होगी। पाँच लाख स्वयंसेवकोंकी सेना खड़ी हो जाये, तो उसे अंग्रेज सेनाकी बराबरी मिलेगी और उतने ही हक भी मिलेंगे। पाँच लाखकी इस तरहकी सेना बन जानेमें ही हमारे अधिकार समाविष्ट हैं।

कुछ कहते हैं कि आप बिना शर्तके लड़ाईमें जानेको कहते हैं। दूसरे सलाहकार कहते हैं कि बराबरके अधिकारोंका वचन लेकर जाओ। तीसरे कहते हैं, हम जानेके लिए बँधे हुए ही नहीं हैं। हमें खुद अपने सिर मुसीबत न लेनी चाहिए। हम इन तीन सलाहों से चक्करमें पड़ जाते हैं। हमारे खयालसे तो समझदारी इसीमें मालूम होती है कि हम जिस हालतमें हैं, उसीमें रहें। मेरा नम्र उत्तर यह है कि ऐसी बातें तो कायरोंकी होती हैं। ज्यों-ज्यों समय बीतेगा त्यों-त्यों दल बनेंगे, अलग-अलग मत बनेंगे, उन सबपर आपको विचार करना पड़ेगा। जिस स्वराज्यको लेनेकी