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३६२. पत्र: बलवन्तराय ठाकोरको

[नवागाँव]
जुलाई २४, १९१८

आपका पत्र मिला। मुझे लगता है, जब हमारी पार्लियामेंट बनेगी, तब हमें फौजदारी कानूनमें एक धारा जुड़वानेका आन्दोलन करना पड़ेगा। यदि दो व्यक्ति भारतकी एक भाषा जानते हों और इसपर भी उनमें से कोई एक दूसरेको अंग्रेजीमें पत्र लिखे या एक दूसरेसे अंग्रेजीमें बोले, तो उसे कमसे-कम छ: महीनेकी सख्त सजा दी जायेगी। ऐसी दफाके बारेमें अपनी राय बताइए और स्वराज्य न मिले, तबतक जो अपराध करे, उसके लिए क्या उपाय करना चाहिए, यह भी बताइए।

सैनिक खर्च किस तरह घट सकता है, इसके बारेमें आपकी राय समझ ली है। किन्तु अभी तो दिल्ली दूर है। जब हम स्वराज्य ले लेंगे, तब जो परिस्थिति होगी, उसपर यह बहुत-कुछ निर्भर रहेगा।

क्या स्वराज्यकी तैयारी धीमे-धीमे नहीं हो सकती? मेरे खयालसे तो यह स्थिति धीरे-धीरे ही प्राप्त की जा सकती है। फिर, विवाहसे पहले सगाई तो होती ही है। अंग्रेजीमें तो प्रणय-काल बहुत लम्बा होता है। विवाहकी उपमा तो दोनों विचारोंपर लागू नहीं होती है। क्रान्ति तात्कालिक परिवर्तन है। ऐसे परिवर्तन शान्त ढंगसे होते ही नहीं। इसलिए ‘शान्तिमय क्रान्ति’ तो परस्पर विरोधी शब्द प्रयोग है। भारत शान्ति और तात्कालिक परिवर्तन दोनों चाहता है। यह कैसे सम्भव हो?

यह ठीक है, आपके पत्रोंका सार्वजनिक उपयोग नहीं किया जायेगा। हम यह चाहते हैं कि थोड़े अर्से बाद ‘निजी’ शब्द लिखनेकी जरूरत न पड़े।

मैं आज गाँवमें कुछ जाँच करने आया हूँ। थोड़ा समय था, इसलिए विनोद कर लिया। अभी थोड़ा बाकी है। खेड़ाकी लड़ाईके औचित्यके बारेमें अभीतक आपको शक है, तो उनकी तरफसे मैं आपको यहाँ आकर प्रत्यक्ष देखकर अपनी शंका दूर कर लेनेका निमन्त्रण देता हूँ। अभीतक जिनकी शंका दूर न हुई हो, ऐसे तो मेरी जानकारीमें केवल आप ही हैं।

मोहनदासके वन्देमातरम्

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४