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३६३. पत्र: मगनलाल गांधीको

नवागाँव
गुरुवार, [जुलाई २५, १९१८]

चि० मगनलाल,

तुम्हें रावजीभाईने डरा दिया। रावजीभाईको मैंने डराया। उन्होंने मेरे शब्दोंका आवश्यकतासे अधिक अर्थ किया है। मेरे आदर्श नहीं बदले। भारतमें मुझे बहुत कड़वे अनुभव हुए हैं फिर भी मेरे विश्वास ज्योंके-त्यों हैं। हमें पश्चिमसे कम ही सीखना है। मैंने यहाँ जो बुराइयाँ देखी हैं, उनसे मेरे मूल विचारोंमें कोई फर्क नहीं पड़ा। इस लड़ाईसे भी फर्क नहीं पड़ा। जो था, वह साफ हुआ है। मुझे ऐसा नहीं जान पड़ा कि हमें पाश्चात्य सभ्यता अपनानी है। ऐसा भी नहीं लगा कि हमें शराब, मांसादि ग्रहण करने पड़ेंगे। यह जरूर लगा है कि स्वामिनारायण[१] और वल्लभाचार्यने हमारे पौरुषका अपहरण किया है। उन्होंने मनुष्योंकी रक्षण-शक्ति छीन ली है। लोगोंने शराब, बीड़ी वगैराका त्याग किया, यह तो ठीक ही हुआ। किन्तु यह कोई साध्य वस्तु नहीं है, यह तो साधन है। बीड़ी पीनेवाला चरित्रवान् हो, तो वह इस लायक है कि उसका सत्संग किया जाये; और जन्मसे बीड़ीका त्यागी व्यभिचारी हो, तो किसी कामका नहीं है। स्वामिनारायण और वल्लभाचार्यका सिखाया हुआ प्रेम भावुकता है। उससे शुद्ध प्रेम पैद नहीं हो सकता। अहिंसाका शुद्ध लक्षण तो उन्होंने सोचा ही नहीं। अहिंसा चित्तवृत्तियोंका निरोध है। उसका मुख्य प्रयोग मनुष्योंके आपसी सम्बन्धोंमें है। इसकी तो गन्धतक उनके साहित्यमें नहीं पाई जाती। उनका जन्म हमारे इस विषम कालमें हुआ और उस वातावरणसे वे मुक्त नहीं हो सके। उनका असर गुजरातपर बहुत अधिक हुआ। तुकाराम और रामदासका वैसा असर नहीं हुआ। तुकारामके अभंगों और रामदासके श्लोकोंमें बहुत पुरुषार्थ है। वे भी वैष्णव थे। वैष्णव-सम्प्रदाय और वल्लभाचार्य तथा स्वामिनारायणकी शिक्षाको मिला न देना। वैष्णव सम्प्रदाय बहुत पुराना है। मैं यह बात नहीं देख सका था कि हिंसामें अहिंसा है। वह अब देखने लगा हूँ। यह बड़ा परिवर्तन हुआ है। शराबमें मस्त हुए मनुष्यको अत्याचार करनेसे रोकनेका फर्ज नहीं समझा था, महाव्यथासे पीड़ित कुत्तेके प्राण लेनेकी जरूरत नहीं समझी थी, पागल कुत्तेको मारनेकी आवश्यकता नहीं समझी थी। इन सभी हिंसाओंमें अहिंसा है। हिंसा शरीरका गुण है। विषयवृत्तिका त्याग ब्रह्मचर्य है, परन्तु हम अपने लड़कोंका पालन इस तरह नहीं करते कि वे नपुंसक हो जायें। वे अत्यन्त वीर्यवान् होनेपर भी अपनी विषयेन्द्रियको रोकें, तभी वह ब्रह्मचर्य है। इसी तरह हमारे बच्चे शरीरसे बलवान् होने ही चाहिए। वे हिंसा-वृत्तिका सर्वथा त्याग न कर सकें, तो उन्हें हिंसा करने देकर, लड़नेकी शक्तिका

  1. स्वामी सहजानन्द, १७८१-१८३३।