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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आफ्रिकाके सार्वजनिक जीवनमें प्रवेश किया था, तब वे एक साधारण व्यापारी थे। वे हाईस्कूल तक पढ़े थे, फिर भी उनकी शिक्षा जितनी-भर थी उन्होंने ट्रान्सवालमें उसका उपयोग बहुत ही अच्छा किया। संघर्षके दिनोंमें वे दृढ़व्रती, चारित्र्यवान् और सौम्य-स्वभाव युवक सिद्ध हुए। उन्होंने कठिन स्थितियोंमें ऐसा साहस दिखाया जैसा बहुतसे उच्च कोटिके सत्याग्रही भी प्रायः नहीं दिखाते। ऐसे अवसर भी आये जब हममें से बड़े-बड़े अधीर हो सकते थे, परन्तु सोराबजी कभी विचलित न हुए।

संघर्ष समाप्त हो जानेपर मेरी यह इच्छा हुई थी कि जिन युवक भारतीयोंने आन्दोलनमें बहुत बहादुरीके साथ भाग लिया है उनमें से किसी एकको इंग्लैंड भेजा जाये। एक सज्जनने वहाँ जानेका खर्च देनेकी अपनी इच्छा और तैयारी बतायी थी। इनमें से अनेक कारणोंसे सोराबजी ही चुने गये। सवाल यह था कि जिस विद्यार्थीको पढ़ाई छोड़े ८ वर्ष हो गये, क्या वह फिर पढ़ सकेगा। परन्तु सोराबजी तो कृतनिश्चय थे। उनकी अभिलाषा बैरिस्टर बनकर अधिक प्रभावकारी देशसेवा करनेकी थी। आखिर वे इंग्लैंड गये। जिन दिनों श्री गोखले दक्षिण आफ्रिका गये थे उन दिनों सोराबजी उनके सम्पर्कमें आये थे। वे लन्दनमें उनके सम्पर्कमें और भी अधिक आये। मुझे मालूम है कि श्री गोखले सोराबजीकी योग्यताके बारेमें बहुत अच्छी राय रखते थे। उन्होंने सोराबजीको अपने [भारत सेवक] समाजका सदस्य बननेके लिए कहा था। लन्दनमें बसे हुए भारतीयों के जितने बड़े आन्दोलन चले; उन सबमें सोराबजीने सक्रिय भाग लिया। कुछ समय तक वे लन्दन भारतीय समितिके मन्त्री भी रहे थे। महायुद्ध आरम्भ होनेपर लन्दनमें जो आहत सहायक दल बनाया गया था उसमें नाम लिखानेवाले वे सबसे पहले व्यक्ति थे और उन्होंने नेटलेमें घायलों और बीमारोंकी सेवाका काम किया था। बैरिस्टर हो जाने पर वे दक्षिण आफ्रिका लौट गय। उनका विचार वहाँ वकालत करके कुछ वर्ष दक्षिण आफ्रिकामें बिताकर और अपने स्थानपर किसी दूसरे योग्य व्यक्तिको बैठाकर भारत लौटनेका था। परन्तु शोक है, ईश्वरको कुछ और ही मंजूर था और इस होनहार युवकका जीवन-दीप एकाएक बुझ गया। मृत्युके समय वे ३५ वर्षके ही थे।

मैं ऊपर जो-कुछ कह आया हूँ उसमें सोराबजीके मानवीय गुणोंका चित्रण नहीं किया जा सका है। वे बहुत ही सच्चे आदमी थे। वे सच्चे पारसी थे, क्योंकि वे एक सच्चे भारतीय थे। वे कोई जाति और धर्मगत भेद नहीं मानते थे। उनकी देश भक्ति अगाध थी और देशसेवा उनका धर्म बन गया था। वास्तवमें वे एक दुर्लभ पुरुष थे। उनके परिवारमें उनकी शोकमग्ना विधवा पत्नी हैं। मुझे यकीन है कि सोराबजीके अनेक मित्र उनके इस शोकमें उनके साथ हैं।

आपका,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]
बॉम्बे क्रॉनिकल, २९-७-१९१८