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३६८. पत्र: सी० एफ० एण्ड्रयूजको

[नडियाद]
जुलाई २९, १९१८

प्रिय चार्ली,

दुबारा पत्र लिखनेका आनन्द लूट लेता हूँ। एक पराजित राष्ट्रके पैगम्बरका सन्देश सुनने में जापानने अरुचि दिखाई, इसकी तहमें मुझे तो बहुत गहरा अर्थ दिखाई दे रहा है।[१] दुनियामें युद्ध सदा रहेगा। सारी मनुष्य-जातिका स्वभाव बदल जाये, इसकी सम्भावना दिखाई नहीं देती। मोक्ष और अहिंसा व्यक्ति हो प्राप्त कर सकेंगे। अहिंसाके पूर्ण पालनके साथ जमीन-जायदाद रखना या सन्तान पैदा करना असंगत है। दुष्कृत्य करनेवालेको मारना पड़े तो मारकर भी अपने स्त्री-बच्चोंकी रक्षा करनेमें यथार्थ अहिंसा ही है। सामनेवाले मनुष्यको मारूँ नहीं और बीचमें पड़कर उसके सारे प्रहार अपने ऊपर झेल लूँ, तो वह सम्पूर्ण अहिंसा होगी। परन्तु हिन्दुस्तानने तो पलासीके रणक्षेत्रमें दोनोंमें से एक भी काम नहीं किया हम तो एक-दूसरेसे लड़नेमें व्यस्त कायर लोगोंका एक झुंडमात्र थे। [ईस्ट इंडिया] कम्पनीके रुपयेके भूखे थे और तुच्छ वस्तुओंके लिए अपनी आत्मा बेचनेको तैयार थे। आज भी हमारी दशा कम-ज्यादा अंशमें―बल्कि ज्यादा अंशमें, कम अंशमें नहीं―ऐसी ही है। कुछ व्यक्तियोंके बहादुरी दिखाने के उदाहरण होते हुए और उन दिनोंके अतिशयोक्तिपूर्ण विवरणोंमें पीछेसे सुधार हो जाने पर भी कुल मिलाकर हमने जो अपनी दुर्गत करवाई उसमें कोई अहिंसा नहीं थी। इसलिए जापानने जो अरुचि प्रकट की, वह मुझे तो ठीक मालूम होती है। पुराने जमानेके ईसाई पादरियोंने क्या किया था, इस बारेमें मुझे काफी जानकारी नहीं है। मेरा खयाल है कि उन्होंने कमजोरीसे नहीं, बल्कि बहादुरीसे कष्ट सहन किये थे। प्राचीन कालके ऋषियोंने तो यह रिवाज रखा था कि उनकी धार्मिक क्रियाओंकी रक्षा क्षत्रिय करें। विश्वामित्रकी तपस्यामें राक्षसोंके विघ्न डालनेपर रामने रक्षा की थी। बादमें विश्वामित्रको ऐसी रक्षाकी जरूरत नहीं रही।

सैनिक भरतीके काममें मुझे बहुत मुश्किल होती है। किन्तु तुम मान लो कि अभी-तक मुझे एक भी आदमी ऐसा नहीं मिला, जिसे मारनेमें आपत्ति होनेके कारण भरती होनेमें आपत्ति हो। वे इसलिए आपत्ति करते हैं क्योंकि वे मरनेसे डरते हैं। मौतका यह अस्वाभाविक भय राष्ट्रको बरबाद कर रहा है। इस क्षण तो मैं केवल हिन्दुओंका ही विचार कर रहा हूँ। मुसलमान युवकोंमें मृत्युके प्रति पूर्ण उपेक्षाका भाव उनकी अद्भुत सम्पत्ति है।

  1. संकेत श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा टोकियो (जापान) में दिये गये उस भाषण की ओर है जिसमें उन्होंने जापानपर पश्चिमकी नकल करनेका आरोप लगाया था। उनके उस कथनपर जापानी श्रोताओंने तानेभरी फब्तियाँ कसी थीं। देखिए नेशनलिज्म: रवीन्द्रनाथ ठाकुर, पृठ ४९-९३।