३७१. पत्र: वी० एस० श्रीनिवास शास्त्रीको
[नडियाद]
जुलाई २९, १९१८
ठाकोर अभी-अभी आये हैं। वे कहते हैं कि आप फिर बीमार पड़ गये थे। आपको ऐसे कठोर डॉक्टरकी जरूरत है, जो निर्दय बनकर आपसे पूरा उपवास कराये और पानीका इलाज करे। प्रायोगिक धंधोंमें अन्यतम, इस धंधे [प्रचलित डॉक्टरी चिकित्सा][१] से तो ऐसी हत्याके सिवा और कोई आशा नहीं रखी जा सकती, जिसे करनेका उसे लाइसेंस मिला हुआ है। जब-जब आपकी बीमारीकी बात सुनता हूँ, तभी किसी-न-किसी डॉक्टरको गोलीसे मार देनेको जी चाहता। किन्तु मेरी अहिंसा इसमें बाधक होती है। आपके और हिन्दुस्तानके लिए यह सौभाग्यकी बात है कि मेरी कभी संसदमें बैठनेकी महत्त्वाकांक्षा ही नहीं है। नहीं तो ऐसा विधेयक पेश करूँ कि जो लोग बार-बार बीमार पड़ते हों, वे संसदके सदस्य बननेके योग्य न माने जायें।
‘पोलकका तार साथमें भेजता हूँ।’[२] इसका पूरा अर्थ मैं नहीं समझा। परन्तु मेरा खयाल है कि योजनाके देशके द्वारा अस्वीकृत होनेका भय नहीं है।
- महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
- सौजन्य: नारायण देसाई
३७२. पत्र: देवदास गांधीको
[नडियाद]
जुलाई २९, १९१८
देहातकी जिन्दगी गर्मीमें तो भली प्रतीत होती है, परन्तु चौमासेमें अच्छी लगेगी या नहीं, यह सवाल है। मैं मानता हूँ कि चौमासेमें इच्छानुसार जाना-आना मेरे लिए तो बहुत मुश्किल हो जायेगा। गन्दगीके प्रति मेरी अरुचि बढ़ती ही जाती है, घटती नहीं। पाखाना जरा भी खराब होता है तो अकुलाता हूँ। यहाँ शौचके लिए जंगलमें जाता हूँ तो साथमें फावड़ा ले जाता हूँ। गड्ढा खोदकर उसमें बैठता हूँ और शौच-क्रियाके बाद गड्ढेमें मिट्टी डाल देता हूँ, तब आता हूँ। मैं देखता हूँ कि यह इतना-सा नियम न पालनेसे असंख्य रोग फैलते हैं और करोड़ों मक्खियाँ पैदा होती हैं। मेरा खयाल है कि जिन्हें गन्दगी वगैरासे अधिक घिन नहीं होती,