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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वे तो गाँवोंमें बहुत सुखी रहते हैं। कल रातको दो भजन-मण्डलियाँ मेरे पास आई थीं। दोनोंके पास जो बाजे थे वे पाँचसे दस रुपये तक मूल्यके होंगे। उनमें ढोलक, मंजीरे, करताल और इकतारा तम्बूरा थे। इन्हींसे उन्होंने मधुर स्वर उत्पन्न किया। भजन सब कृष्ण-विषयक थे। उन्होंने कैसे द्रौपदीका चीर बढ़ाया, विदुरके घर शाक खाया और दुर्योधनका गर्व दूर किया आदि। यह सब ऐसे मधुर शब्दोंमें रचा गया है कि उसमें से प्रेमभाव और भक्तिभाव फूटे बिना रह ही नहीं सकता। कृष्णके लिए इतनी अधिक भक्ति क्यों है? मेरे खयालसे तो उनके शौर्यके कारण, उनकी परोपकारवृत्तिके कारण होनी चाहिए। अपनी अगाध शक्तिसे उन्होंने पाण्डवोंके छोटे-से राज्यको जिताया, दुष्ट कौरवोंका नाश किया और प्रजाको दुःखसे छुड़ाया, इसलिए उनकी कीर्तिके गीत गाये गये और उन्हें अमर पद प्राप्त हुआ। उन्होंने दुर्योधन जैसेकी परवाह नहीं की, उसके धनसे वे नहीं ललचाये, किन्तु सुदामाके तन्दुल उन्हें बहुत मीठे लगे। ऐसी थी उनकी सादगी। कृष्ण चरित्र चित्रित करके कविने हद कर दी है। इसमें शक नहीं कि ऐसा अद्भुत प्रतिभाशाली कोई हुआ अवश्य है। मैं चाहता हूँ कि तुम सारा महाभारत संस्कृतमें पढ़ सको। जो रस में नहीं ले सका, उसे तुम ले सकोगे। मेरा विषय तो ग्राम-जीवनका सौन्दर्य था, परन्तु मैंने कृष्णके चरित्र के बारेमें लिख डाला। मेरे मनमें कृष्णके जीवनका यह ध्यान कल रातके संगीतसे आया। कल रातका संगीत मुझे अपने संगीतसे भी ज्यादा अच्छा लगा। वह स्वाभाविक और मधुर था। उसमें शोर बहुत नहीं था। ढोलक और अन्य वाद्योंकी ध्वनि बहुत मंद थी। पूनमका चन्द्रमा निकला हुआ था। हम सब एक वृक्षके नीचे बैठे थे। सबकी पोशाक देहाती थी। सब जाजम बिछाकर उसपर बैठे थे। सभी लोग किसान थे। वे दिन-भर मजदूरी करके आये थे और अब निर्दोष आनन्दका भोग कर रहे थे। वे प्रभुके नामका रस पी रहे थे। मैंने उनमें से एकसे कहा: भाई, तुम तो बहुत रस पी रहे हो। उसने जवाब दिया: क्या करें भाई, गप्पें मारनेकी अपेक्षा हम लोग इस तरह भजन-कीर्तनमें ही समय बिताते हैं। ये लोग बारैया जातिके थे, इसलिए आम तौरपर गँवार माने जायेंगे; किन्तु वे ऐसे जरा भी नहीं थे। वे अशिक्षित माने जाते हैं, परन्तु अशिक्षित नहीं थे। मुझे ऐसा लगा कि अगर शिक्षित-वर्ग उन्हें अपनाये और उनमें नया रस भरे, तो उनसे मनचाहा काम लिया जा सकता है। उनमें ज्ञानका तो पार ही नहीं। उसका उपयोग करना आना चाहिए। जैसे अनाड़ी बढ़ई अपने औजारोंको दोष देता है, वही हालत हमारी है। अब तो तुम्हें खूब लम्बा पत्र लिख डाला। इसे पढ़कर मणिलालको भेज देना। मैं ऐसा पत्र फिर शायद ही लिखूँ। सबेरेका समय है, थोड़ा-सा वक्त है, मस्तिष्क विचारोंसे भरा है। उसे थोड़ा-सा तुम्हारे सामने खाली कर दिया है। जो रस मैंने लिया है, तुम भी इसमें से थोड़ा-बहुत चख सको, तो यह मानूँगा कि तुम्हें मैंने विरासतका सच्चा हिस्सेदार बनाया। जैसे हम सरकारसे हिस्सा माँगते हैं, वैसे ही यदि मैं भी अपनी इस निधिका भाग तुम्हें देता हूँ तो अपने ऋणसे ही मुक्त होता हूँ।

बापूके आशीर्वाद

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४