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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ज्यादा जरूरी है। मेरे लिखनेका अर्थ बहुत बढ़ा-चढ़ाकर न किया जाये; परन्तु उसपर क्षणभर विचार करके जितनी कार्रवाई करना उचित हो उतनी कर लेनी चाहिए।

तुम्हारे सम्मुख प्रार्थनाके सम्बन्ध में विचारार्थ इतनी बात प्रस्तुत करता हूँ। हम अपनी अशक्तिका विचार इतनी दूरतक न ले जायें कि कोई काम ही न कर सकें। हम शक्तिके अनुसार पढ़ायें और जितनी कमी हो, उसे प्रयत्न करके दूर करें। मुझे ही संस्कृत पढ़ानी पड़े, तो मैं इस अशक्तिका उपयोग क्या करूँगा? मैं जानता हूँ कि मेरी संस्कृत संस्कृत-ही नहीं कहला सकती। किन्तु दूसरा कोई न हो, तो मैं जरूर पढ़ाऊँगा और दिन-प्रतिदिन अपनी कमियोंको दूर करता जाऊँगा। पारनेल इसी तरह लोकसभाके कानूनोंकी जानकारी में सबसे आगे बढ़ गया था। तुम अपनी अशक्तिका ही विचार करके प्रत्येक कार्यको करनेमें डरते हो। यदि तुम सामने आये हुए प्रत्येक कार्यको, जितनी शक्ति हो, उसीका उपयोग करके निपटा डालो, तो क्या तुम्हें अधिक आनन्द न मिलेगा?

लड़के अपना बल कैसे बढ़ायें? वे अपना बचाव करें, लेकिन उद्धत न बनें, उन्हें यह सिखाना बड़ा कठिन मालूम होता है। हम अबतक लड़कोंको यही सिखाते थे कि जो मारे, उसकी मार खाओ। क्या अब यह शिक्षा दी जा सकती है? बालकपर इस शिक्षाका क्या असर होगा? वह युवावस्थामें क्षमावान् होगा या डरपोक बनेगा? मेरी अक्ल काम नहीं करती। अपनी अक्ल दौड़ाना। अहिंसाके इस नये दिखाई देनेवाले स्वरूपसे मैं तो कई तरहके प्रश्नोंके जालमें फँस गया हूँ। मुझे सभी गाँठोंके खोलनेका कोई एक महासूत्र नहीं मिला। वह मिलना ही चाहिए। क्या हम अपने लड़कोंको एक तमाचा मारनेपर बदलेमें दो मारना सिखायें या उन्हें यह सिखायें कि उनपर कोई उनसे कमजोर व्यक्ति हमला करे तो वे उसके तमाचे खा लें, परन्तु यदि उन्हें कोई उनसे बलवान् व्यक्ति मारे, तो वे उसका सामना करें और उसमें उनपर जो प्रहार हों, उन्हें सहन करें? यदि कोई सरकारी अफसर उन्हें मारे, तो वे उसका क्या करें? जब कोई किसी लड़केको मारे, तो वह उसकी मार सहन करके हमारी सलाह ले या जैसा मौका हो, वैसा काम करे और उसका परिणाम भोगे? “जो एक तमाचा लगाये, उसके दो तमाचे सहन करो” इस राजमार्गको छोड़नेसे ही उपर्युक्त संकट आते हैं। इनमें से पहला मार्ग सरल है अतः क्या वह सच्चा हो सकता है या संकटमय मार्ग से गुजरनेपर ही सही रास्ता हाथ लगेगा? हिमालयपर चढ़नेकी पगडंडियाँ अनेक दिशाओंमें जाती हैं, वे कभी-कभी तो विरुद्ध दिशाओं में भी जाती हैं; फिर भी जानकार मार्गदर्शक तो [आरोहीको] अन्तमें चोटी पर ले ही जाता है। हिमालयपर सीधी लकीर से जा ही नहीं सकते। क्या इसी तरह अहिंसाका मार्ग भी विकट होगा? त्राहि माम्, त्राहि माम्।

मोहनदासके वन्देमातरम्

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४