पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 14.pdf/५३१

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३७५. पत्र: पुंजाभाई शाहको

[नडियाद]
जुलाई २९, १९१८

सुज्ञ श्री पुंजाभाई, आपने अच्छा निश्चय किया।[१] परमार्थकी दृष्टिसे की हुई सारी प्रवृत्ति निवृत्ति ही है और वह मोक्षका कारण है। दूसरोंकी सेवा परमार्थ ही है। अपनी तरफसे हटाकर दूसरोंकी तरफ ध्यान ले जाने में पुरुषार्थकी जरूरत रहती है। आश्रममें सबकी यथाशक्ति सेवा करने में तो आनन्दका पार ही न होना चाहिए। आश्रममें कोई-न-कोई बीमार रहता ही है। दिनमें उसकी खबरगीरी रखनी चाहिए और बच्चोंके साथ विनोद करके उन्हें खुश रखना चाहिए। इस काममें क्लेश नहीं, झंझट नहीं। आत्माकी पहचान इसी तरह की जा सकती है। आपको आसानीसे इसका अनुभव हो जायेगा। भुवरजी वगैरा बीमारोंके पास थोड़ा-बहुत नित्य बैठनेका अभ्यास रखना।

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४
 

३७६. पत्र: कस्तूरबा गांधीको

[नडियाद]
जुलाई ३१, १९१८

प्रिय कस्तूर,

तुम्हें दुःखी देखता हूँ तो मैं दुःखी हो जाता हूँ। स्त्रियोंको लाया जा सकता, तो मैं तुम्हें लाता। मेरे बाहर जानेसे तुम इतनी विचलित क्यों हो जाती हो? हमने वियोग में सुख मानना सीखा है। ईश्वरकी इच्छा होगी, तो फिर मिलेंगे और साथ रहेंगे। आश्रम में अनेक अच्छे काम हैं। तुम उनमें जुट जाओगी, तो अवश्य प्रसन्न रहोगी।

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४
 
  1. मगनलाल गांधी जब इलाहाबादमें थे तब आश्रमकी व्यवस्थाका कार्य श्री पुंजाभाईने सँभाल लिया था।