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३७७. पत्र: मणिलाल गांधीको

[नडियाद]
जुलाई ३१, १९१८

चि० मणिलाल,

तुम्हारा पत्र इन दिनों नहीं आया। साथमें भाई सैमका पत्र है। इसे तुम्हारे पढ़ने और विचार करनेके लिए भेज रहा हूँ। उनका कितना ही दोष हो, फिर भी मुझे डर है कि तुमने बेहद रोष किया है और बहुत द्वेष-भाव दिखाया है। तुम अपने हकोंकी रक्षा भले ही करते, परन्तु तुम्हें विनय नहीं छोड़नी थी। तुम व्यवस्था चाहते हुए भी उनपर रोष करनेसे बच सकते थे। उनमें से किसीने भी बहुत-सा रुपया जमा कर लिया हो, ऐसी बात नहीं है; और न चुराया है। देवी बहनने क्या अपराध किया है? श्री वेस्ट और श्री सैम दोनोंने अपने बच्चोंकी शिक्षाकी हानि सही है, यह बहुत-बड़ी बात हुई है। मेरा तो यही खयाल है कि तुमने मेरे ऊपरका अपना रोष उनपर उतारा है। तुम उनके यहाँ जाते भी नहीं। ऐसा हरगिज न करना चाहिए। मेरे खयालसे तुम्हें उनसे माफी माँगनी चाहिए। परन्तु यह तो तुम्हें ठीक लगे, तभी करना। मुझे ठीक लगेगा, इसलिए नहीं। तुम अपनी स्वतन्त्रता कायम रखकर काम करोगे, तो मुझे ठीक ही लगेगा। मैं मानता हूँ कि मैंने तुम्हें मुझ पर रोष करनेके अनेक कारण दिये हैं। उनके लिए तुम मुझे क्षमा करना। मैंने तुम्हें बहुत भटकाया और उससे तुम्हें नियमबद्ध शिक्षा नहीं मिल सकी। परन्तु तुम मुझे तभी क्षमा कर सकते हो, जब तुम्हें यह महसूस हो कि यह अनिवार्य था। मैंने अपना सारा जीवन खुदको पहचानने में बिताया है; यह ढूँढ़नेमें बिताया है कि मेरा कर्त्तव्य क्या है। मेरा काम चमका है, क्योंकि मैंने जैसा माना, वैसा ही किया है। इससे मैं बहुत-सी भुलोंसे बचा हूँ। परन्तु ऊपरसे सोचनेपर लौकिक दृष्टिसे मैंने तुम्हारा अहित किया है। जैसे में अपने प्रयोगोंकी बलि चढ़ा हूँ, वैसे ही तुम और बा भी चढ़े हो। बा समझ गई है। इसलिए उसने जितना कमाया है, उतना किसी अन्य स्त्रीने नहीं कमाया। तुम अभी पूरी तरह नहीं समझे, इसलिए तुम्हारे मनमें रोष रहता है। मैं अब भी कहना चाहता हूँ कि तुम सब भाइयोंकी जैसी सेवा मैंने की है, वैसी दूसरा पिता नहीं करता। मैंने तुम्हें अपने धार्मिक अनुभवोंमें हिस्सेदार बनाया है, इससे अधिक कोई क्या कर सकता है? दूसरे माँ-बापकी तरह मैं तुम्हारा जीवन लौकिक रखकर अपना जीवन निराला बना सकता था। यदि मैं वैसा करता, तो इस समय तुम्हारे और मेरे बीच कोई श्रृंखला न रहती, और जैसे गोकी बेन नामकी बहन हैं, वही दशा हमारी होती। मुझसे दूसरा कुछ नहीं हो सकता था क्योंकि सत्यकी खोज में तो जहाँ हूँ, वहीं रहता और तुम उस मार्ग से बाहर होते। यह तुम्हारे लिए इष्ट न होता। यदि तुम