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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

शिक्षाप्रद बातें कहते रहते हैं। सम्बन्धित व्यक्ति उन्हें सुनकर लाभ भी उठा सकते हैं, परन्तु न्यायाधीशकी आखिरी शुष्क आज्ञाके सिवा कोई अन्य बात उनके पल्ले नहीं पड़ती। वे अपने वकीलों तक की जिरह नहीं सुन सकते। अंग्रेजीके माध्यमसे चिकित्साशास्त्रका ज्ञान पाये डॉक्टरोंकी भी यही दशा है। वे रोगीको जरूरी ज्ञान नहीं दे सकते। उन्हें तो शरीरके अवयवोंके गुजराती नाम भी नहीं आते। इसलिए अधिकतर दवाका नुसखा लिख देने के सिवा रोगीके साथ उनका और कोई सम्बन्ध नहीं रहता। भारतमें पहाड़ोंकी चोटियोंसे चौमासेमें पानीके जो प्रपात गिरते हैं, उनसे हम अपने अविचारके कारण कोई लाभ नहीं उठाते। हम नित्य लाखों रुपयेकी सोने-जैसी कीमती खाद पैदा करते हैं, किन्तु उसका उचित उपयोग नहीं करते और फलतः रोग मोल लेते हैं। इसी तरह हम अंग्रेजी भाषाके बोझसे कुचले हुए लोग दूरदर्शिताके अभावमें ऊपर लिखे अनुसार जनसाधारणको जो कुछ देना चाहिए, उसे उनको नहीं दे पाते। इस कथनमें अतिशयोक्ति नहीं है। उससे केवल मेरी तीव्र भावना प्रकट होती है। हम मातृ-भाषाका जो अनादर करते रहे हैं, उसका हमें भारी प्रायश्चित्त करना पड़ेगा। इससे जनसाधारणका बड़ा नुकसान हुआ है। इस नुकसानसे उसे बचाना मैं पढ़े-लिखे लोगोंका पहला फर्ज समझता हूँ।

जो नरसी मेहताकी[१] भाषा है, जिसमें नन्दशंकरने अपना 'करणघेलो[२]' उपन्यास लिखा, जिसमें नवलराम[३], नर्मदाशंकर[४]', मणिलाल[५]', मलबारी[६]' आदि लेखक अपना साहित्य लिख गये हैं, जिस भाषामें स्व॰ राजचन्द्र[७] कविने अमृतवाणी सुनाई है, हिन्दू, मुसलमान और पारसी जातियाँ जिस भाषाकी सेवा करती है, जिसके बोलनेवालोंमें पवित्र साधु-सन्त हो चुके हैं, जिस भाषाको बोलनेवालोंमें धन भी प्रचुर है और जिनमें जहाजों द्वारा परदेशोंमें व्यापार करनेवाले व्यापारी भी हैं, जिसमें मुलू माणिक[८] और जोधा माणिककी[९] बहादुरीकी प्रतिध्वनि काठियावाड़के बरड़ा पहाड़में आज भी गूँजती है, उस भाषाके विकासकी सीमा नहीं बाँधी जा सकती। ऐसी भाषाके द्वारा गुजराती लोग शिक्षा भी न लें, तो उनसे भला और क्या होगा? इस प्रश्नपर विचार करना पड़े यही बड़े दुःखकी बात है।

इस विषयको समाप्त करते हुए मैं आप सबका ध्यान डॉक्टर प्राणजीवन मेहता द्वारा लिखे लेखोंकी तरफ खींचता हूँ। उनका गुजराती अनुवाद प्रकाशित हो चुका

 
  1. १४१४-७९; गुजरातके सन्त कवि। उनकी एक रचना "वैष्णव जन तो तेने कहिए" गांधीजीको अत्यन्त प्रिय थी।
  2. गुजराती साहित्यका प्रथम उपन्यास जिसमें गुजरातके अन्तिम स्वतन्त्र हिन्दू राजाकी कहानी है।
  3. नवलराम लक्ष्मीशंकर पंड्या (१८३६-१८८८); गुजराती साहित्यकार।
  4. १८३३-१८८९; सुप्रसिद्ध गुजराती कवि व लेखक।
  5. गांधीजीके मित्र रेवाशंकर झवेरीके पुत्र, गुजराती विचारक व लेखक।
  6. बहरामजी मेरवानजी मलबारी (१८५४-१९१२); कवि, पत्रकार और समाज सुधारक।
  7. राजचन्द्र रावजीभाई मेहता; जैन दार्शनिक विचारक, कवि और जौहरी, देखिए आत्मकथा, भाग २, अध्याय १।
  8. प्रसिद्ध बागी सरदार; इन्होंने ब्रिटिश राज्यकी स्थापनाका विरोध किया था।