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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सकती है। किन्तु यदि उन्हें जिस भूमि-विशेषपर बुआई करनी है, उसके बारेमें करार करने की अनुमति नहीं होगी तो वे उक्त लाभसे वंचित रह जायेंगे। लगानके हिसाबको सर्वथा पृथक् रखा जाये, इसके बारेमें व्यवस्था करना जरूरी हो सकता है, किन्तु इसके आगे जाने से मेरे विचारमें, अच्छाईकी अपेक्षा शायद बुराई ही अधिक होगी।

हृदयसे आपका,
एल० एफ० मॉर्सहैड

[अंग्रेजीसे]
सिलेक्ट डॉक्यूमेंट्स ऑन महात्मा गांधीज़ मूवमेंट इन चम्पारन
 

परिशिष्ट ९

विलियम एस० इर्विनका पत्र ‘स्टेट्समैन’ को

जनवरी ८, १९१८

सम्पादक


स्टेट्समैन
[कलकत्ता]


महोदय,

यह देखते हुए कि चम्पारनके बाहरके लोगोंको, और विशेषरूपसे बिहार- उड़ीसाकी सरकार तथा भारत सरकारको (देखिए, नव-वर्षकी उपाधि-सूची) इस बातका कोई सही अन्दाज नहीं है कि जिलेको श्री गांधीके ‘मिशन’ और सर्वथा विलक्षण जाँच-समितिकी अविचारपूर्ण सिफारिशों से कितनी भयंकर हानि पहुँची है, मैं एक बार पुनः सारी स्थिति के कारण और प्रभावकी ओर ध्यान आकृष्ट करनेका लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।

सरकारको श्री गांधीने आश्वासन दिया था कि चम्पारन लौटनेपर उनकी तमाम कोशिश जमींदारों और काश्तकारोंके सद्भावपूर्ण सम्बन्धोंको (जिसे खराब करनेके लिए वे तथा उनके साथी मुख्य रूपसे जिम्मेदार थे) और अच्छा बनाने (वास्तवमें पुनः स्थापित करने) की होगी। मुझे आशा है कि इस पत्रको पढ़कर आप स्वयं देख सकेंगे कि उन्होंने अपने उस आश्वासनको ईमानदारीसे पूरा किया है अथवा नहीं। यही इस पत्रका उद्देश्य है।

चम्पारन लौटनेके बादसे श्री गांधीका काश्तकारोंको यह निर्देश रहा है कि वे जमींदारों द्वारा लगानकी माँगका तबतक विरोध करें जबतक २० प्रतिशतकी छूट न दे दी जाये, शरहबेशी २६ प्रतिशत छूट न दी जाये (जैसा भी मामला हो) या तावानका २५ प्रतिशत वापस न कर दिया जाये। ये निर्देश उन्होंने प्रस्तावित विशेष कानूनको मद्देनजर रखकर दिये हैं जब कि फिलहाल इस आशयका कोई कानून नहीं है। इस सलाहके फलस्वरूप, जिसपर काश्तकारोंने पूरी तरह अमल किया है, न केवल फैक्टरियोंको अपने चालू खर्चोंमें बहुत दिक्कत उठानी पड़ी है, बल्कि बेतिया पौण्डपावना ऋण-योजना