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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। क्या ऊपरकी ये सारी बातें श्री गांधी द्वारा सरकारको दिये गये वचनकी पूर्तिके प्रामाणिक प्रयत्नोंके अन्तर्गत खींची जा सकती हैं।

अदालतके चपरासियोंने मुझे बताया कि वे जिन गाँवों में सरकारी कामके सिलसिले में जाते हैं वहाँ तमाम सरकारी सत्ताके विरुद्ध जिस प्रकार द्रोहात्मक और अपूर्ण बातें होती हैं उन्हें दोहराने की वे हिम्मत नहीं कर सकते। कमसे-कम एक अदालती चपरासीको मैं जानता हूँ जो मेरे दो गाँवोंमें सम्मन जारी करने गया था। वहाँ उसको अपमानित किया गया, हैरान किया गया और गाँवसे बाहर कर दिया गया और उससे कहा गया कि “गांधी साहब” को छोड़कर हम दीवानी या फौजदारी किसी सत्ताको नहीं मानते। उसने इसी तरहकी और भी बहुत बातें कहीं। ऐसे सैकड़ों दृष्टान्त दिये जा सकते हैं, लेकिन जब सरकार वैध रूप से स्थापित सारी सत्ताकी अवमानना और सारे दीवानी और फौजदारी कानूनोंकी अवज्ञाके प्रति आँखें बन्द कर ले और सम्पूर्ण बिहार और उड़ीसा-भरमें केवल ५ फैक्टरियोंको प्रभावित करनेवाले एक विशेष विधेयकको पास करनेकी कोशिश करे, तब उन दृष्टान्तोंके उल्लेखसे क्या लाभ? और इन फैक्ट-रियोंके मामलेमें भी उसका रुख इतना अनुचित और अन्यायपूर्ण है कि जिस फैक्टरीके काश्तकार असन्तुष्ट और काबूके बाहर हैं उन्हें अनिवार्यतः लाभ पहुँचेगा और जिन फैक्टरियोंके काश्तकारोंने कोई शिकायत नहीं की है और न उनके पास शिकायतकी कोई वजह है उन्हें अनुचित ढंगसे दण्डित किया जायेगा। कोई नहीं जानता कि इस ढंगके विशेष कानूनका किस हदतक कैसा असर होगा। सभी जिम्मेदारों और जमीनके मालिकोंको यह चेतावनी ग्रहण कर लेनी चाहिए कि एक राजनीतिक आन्दोलनको सन्तुष्ट करनेके लिए उनकी स्वतंत्रताका भी इस प्रकार किसी भी क्षण बलिदान किया जा सकता है, और यदि लगभग स्पष्ट राजद्रोहका उपदेश देनेवाले किसी व्यक्तिके रास्ते में रोड़ा प्रतीत हुआ तो स्थायी बन्दोबस्तको भी बंगाल टेनेंसी ऐक्टकी तरह निर्दयतापूर्वक समाप्त कर दिया जायेगा। मैं इस बातकी गारंटी खुशी-खुशी देनेको तैयार हूँ कि यदि श्री गांधी और उनके चेलोंको जिला छोड़नेके लिए विवश कर दिया जाये तो दो महीनेसे भी कम समयमें पूर्ण व्यवस्था और शांति स्थापित हो जायेगी, क्योंकि रैयत पहले ही से उनके बड़े-बड़े वादों और उन वादोंकी थोथी पूर्तिको लेकर उनकी खिल्ली उड़ाने लगी है।

आपका,
विलियम एस० इर्विन

[अंग्रेजीसे]
स्टेट्समैन, ११-१-१९१८