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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

(ग) क्योंकि उसका उद्देश्य रैयतके पट्टेके मौजूदा करारों और दायित्वोंको अवैध करार देनेका है जबकि ये दोनों ही बिलकुल वैध सिद्ध हो चुके हैं, और करारोंको तो सिर्फ सात वर्ष पहले ही बंगाल सरकारकी मंजूरी मिल चुकी है।

(घ) क्योंकि इसका उद्देश्य बिना किसी मुआवजेके और अकारण ही एक ऐसी प्रणालीको समाप्त करनेका है जो एक सौ वर्षसे भी अधिक कालसे जारी है और जो अब भी अन्य जिलोंमें बिना किसी झंझटके चालू है।

(ङ) क्योंकि इसका उद्देश्य बिना जमींदार या भू-स्वामीकी मर्जीके और जबरदस्ती उस लगानमें कमी करना है जिसे पूरी जाँच-पड़तालके बाद बन्दोबस्त अधिकारियोंने सर्वथा वैध, उचित और मुनासिब घोषित किया है, और जिसे कई वर्षों तक खुशी-खुशी अदा भी किया गया है।

यदि इस विधेयकको समाप्त करनेके पक्षमें तर्कपूर्ण कारणके बावजूद यदि सरकार इसे पास करानेकी कोशिश करती है तो हम इसके कतिपय मुख्य दोषोंको कुछ हदतक दूर कराने के लिए कुछ सुझाव देंगे।

खण्ड ३ (१)―यह खण्ड, अपने वर्तमान रूपमें, खुश्की प्रथाके अन्तर्गत नील और गन्ने की खेतीको सर्वथा असम्भव बना देगा।

अगर बहसकी खातिर यह मान भी लिया जाये कि रैयतको अपने भू-स्वामी या जमींदारके साथ ऐसा कोई करार करने देना वांछनीय नहीं है जिसमें वह कई वर्षोंकी लम्बी अवधिके लिए अपनी जोतके एक नियत अंशमें उत्पन्न होनेवाली एक फसल-विशेषको एक निश्चित दरपर, जो उस जमीनके क्षेत्रफलपर निर्भर करेगी जिसपर उक्त फसल उगाई जायेगी, बेचनेके लिए बाँधता हो, तो भी यह अवश्य ही वांछनीय और जरूरी है कि वह अपनी मर्जीसे चुने हुए एक निश्चित जमीनके टुकड़ेपर पैदा होने- वाली फसलको उत्पादनकी मात्राके आधारपर निश्चित की गई दरके हिसाबसे बेच सके। यह सिद्धान्त विधेयकके उद्देश्य और कारणवाले वक्तव्यमें स्वीकार भी किया गया है। यदि, जैसा कि सुझाव रखा गया है, उसे एक निश्चित वजन भर पैदावार भू-स्वामीको देनेकी शर्त करने दिया जाता है तो वह मौसमकी दशापर निर्भर होनेके कारण निश्चित परिमाण न दे सकनेपर क्षतिपूर्ति करनेके लिए जिम्मेदार होगा। दूसरी ओर, यदि वह जमीनके एक टुकड़े-विशेष की पैदावार देनेका करार करता है, तो उस टुकड़े पर अपेक्षासे कम उपज होने की स्थितिमें उसे पेशगी रकममें जितनी कमी पड़ेगी केवल उतनी ही रकम चुकानी होगी।

उसके अलावा, लगभग हमेशा ऐसा होता है कि खेतकी जुताई-निराई आरम्भ करने से पहले रैयत काफी रकम पेशगीके रूपमें माँगती है, और चूंकि किसान खर्चीले स्वभावका होता है, इसलिए यदि उससे ऐसा करार करनेकी अनुमति नहीं होगी जिससे वह एक निश्चित टुकड़ेपर एक फसल-विशेष पैदा करनेको बाध्य हो, तो सम्भावना इसी बातकी ज्यादा है कि वह पेशगी ले ले और उसके बाद निर्धारित मात्रामें उस फसलको पैदा करने के लिए वह पर्याप्त उपयुक्त भूमिमें बुआई न करे। इस कारण जमींदारके लिए यह सम्भव नहीं होगा कि वह पेशगी दाम और बीजके दाम किसानको