पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 14.pdf/५६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

परिशिष्ट १२

शंकरलाल बैंकरको पत्रिका

आप लोगोंके लिए मैं यह पहली ही पत्रिका लिख रहा हूँ। इसलिए मुझे यह तो कह ही देना चाहिये कि इसके लिए मेरा अधिकार नाम-मात्रका ही है। मैंने स्वयं मजदूरी नहीं की। मजदूरोंको जैसे दुःख सहने पड़ते हैं, वैसे मैंने नहीं सहे; इसी तरह उन दुःखोंको समझकर उन्हें दूर करनेके लिए भी मैं कुछ कर नहीं सकता। अतएव इस अवसरपर जो कुछ भी सलाह देनेकी जरूरत मुझे मालूम हुई है, वह देते हुए मुझे संकोच तो होता ही है। हालांकि अबतक मैंने आपके लिए कुछ किया नहीं है, तो भी आगे अपनी शक्ति के अनुसार आपके लिए कुछ-न-कुछ करनेकी मेरी बड़ी इच्छा है, और इस इच्छाके कारण ही मैं यह लिखता हूँ।

आजसे दो दिन पहले हमारी स्थिति कुछ हदतक चिन्ताजनक हो उठी थी। आपमें से कुछ भाई तंगीका अनुभव करने लगे थे; और यह डर पैदा हो गया था कि कहीं वे इस तंगीसे मुक्त होनेके लिए गांधीजीके आग्रहके अनुसार मजदूरी करनेके बदले, प्रतिज्ञा तोड़कर कामपर न चले जायें। लेकिन आज वह स्थिति नहीं रही है। गांधीजीकी प्रतिज्ञाके कारण हमारे जड़ हृदयोंमें चैतन्य आ गया है, और हमें पता चला है कि हमारी प्रतिज्ञा कितनी गम्मीर है। ‘मर जायेंगे, पर टेक न छोड़ेंगे,’ यह बात अब महज सभाओंमें बोलनेकी नहीं रही, बल्कि करके दिखानेकी है, इसका विश्वास अब हमें हो गया है। इस बदली हुई परिस्थितिके प्रमाण-स्वरूप तंगदस्त भाइयोंने खुशी-खुशी मजदूरी करना शुरू किया है। यही नहीं, बल्कि जिनकी स्थिति अच्छी है, उन्होंने दूसरों-के सामने अपना उदाहरण रखकर और अपनी मजदूरीसे मिलनेवाली मेहनतानेकी रकम दूसरोंकी मददमें खर्च करके हममें से फूटकी सम्भावनाको हमेशा के लिए नष्ट कर दिया है। लेकिन यह काफी नहीं है। गांधीजीकी प्रतिज्ञाके कारण हमारे ऊपर बड़ी भारी जिम्मेदारी आ पड़ी है। अगर इस जिम्मेदारीको हम अच्छी तरह समझते हैं, तो हमें इस लड़ाईको जल्दीसे-जल्दी खतम करने के लिए जी-जानसे मेहनत करनी चाहिये; और जिन-जिन उपायोंसे हम अपनी टेकपर कायम रहकर लड़ाईको समेट सकते हों, उन सब उपायोंका प्रयोग तुरन्त करना चाहिये। हमारी टेक ३५ प्रतिशत लेनेकी है। और हम जानते हैं कि मिल-मालिकोंके लिए आर्थिक दृष्टिसे ये ३५ प्रतिशत देना मुश्किल नहीं है। लेकिन ३५ प्रतिशत देने में उन्हें जो डर लगता है, वह यह है कि उससे मजदूर सिरपर चढ़ बैठेंगे, उद्धत बन जायेंगे, बात-बात में बहाने बनाकर रूठेंगे और छोटी-छोटी बातोंपर हड़ताल करके उद्योगका नाश करेंगे। मुझे तो इस भयका कोई कारण नहीं मालूम होता। जिस उद्योगसे मजदूरोंको रोजी मिलती है, उसके नाशकी इच्छा वे कभी कर ही नहीं सकते। फिर भी यदि मजदूर न्याय-अन्यायका विचार किये बिना मर्यादा छोड़कर चलें, तो जिस अनिष्टका जिक्र ऊपर किया है, वह हुए बिना न रहेगा। अगर