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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

है, उसमें उन्होंने केवल ऐसी आशा ही प्रकट की है। उनका उत्साह उन्हें उपर्युक्त श्रेणी में नहीं ले जाता। वाइसरॉय आशा करते हैं कि अंग्रेजी भाषा दिन-प्रतिदिन इस देशमें फैलेगी, हमारे परिवारोंमें प्रवेश करेगी और अन्तमें राष्ट्रभाषाके ऊँचे पदपर पहुँचेगी। ऊपर-ऊपरसे देखें तो आज इस विचारका समर्थन किया जा सकता है। हमारे पढ़े-लिखे लोगोंकी दशाको देखते हुए ऐसा मालूम पड़ता है कि अंग्रेजीके बिना हमारा कारबार बन्द हो जायेगा। तिसपर भी यदि हम जरा गहराईसे देखें, तो पता चलेगा कि अंग्रेजी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती, और न उसका प्रयत्न किया जाना चाहिए।

तब राष्ट्रभाषाके क्या लक्षण होने चाहिए? इसपर विचार करें:

१. वह भाषा सरकारी नौकरोंके लिए आसान होनी चाहिए।

२. उस भाषाके द्वारा भारतका आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक काम-काज शक्य होना चाहिए।

३. उस भाषाको भारतके ज्यादातर लोग बोलते हों।

४. वह भाषा राष्ट्रके लिए आसान होनी चाहिए।

५ उस भाषाका विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थितिपर जोर न दिया जाये।

अंग्रेजी भाषामें इनमें से एक भी लक्षण नहीं है।

पहला लक्षण मुझे अन्तमें रखना चाहिए था। परन्तु मैंने उसे पहले रखा है, क्योंकि वह लक्षण अंग्रेजी भाषामें दिखाई पड़ सकता है। ज्यादा सोचनेपर हम देखेंगे कि आज भी राज्यके नौकरोंके लिए वह भाषा आसान नहीं है। यहाँके शासनका ढाँचा इस तरहका सोचा गया है कि अंग्रेज कम होंगे, यहाँ तक कि अन्तमें वाइसरॉय और दूसरे अंग्रेज अँगुलियोंपर गिनने लायक रहेंगे। अधिकतर कर्मचारी आज भी भारतीय हैं और वे दिन-दिन बढ़ते ही जायेंगे। यह तो सभी मानेंगे कि इस वर्गके लिए अंग्रेजी भारतकी किसी भी भाषासे ज्यादा कठिन है।

दूसरे लक्षणपर विचार करते समय हम देखते हैं कि जबतक जनसाधारण अंग्रेजी बोलनेवाले न हो जायें, तबतक हमारा धार्मिक व्यवहार अंग्रेजीमें नहीं चल सकता। इस हदतक अंग्रेजी भाषाका समाजमें फैल जाना असम्भव मालूम होता है।

तीसरा लक्षण अंग्रेजीमें नहीं हो सकता, क्योंकि वह भारतके अधिकतर लोगोंकी भाषा नहीं है।

चौथा लक्षण भी अंग्रेजीमें नहीं है, क्योंकि सारे राष्ट्रके लिए वह इतनी आसान नहीं है।

पाँचवें लक्षणपर विचार करते समय हम देखते हैं कि अंग्रेजी भाषाकी आज जो शक्ति है वह क्षणिक है। स्थायी स्थिति तो यह है कि भारतमें सार्वजनिक कामोंमें अंग्रेजी भाषाकी जरूरत सदा कम रहेगी। अंग्रेजी साम्राज्यसे व्यवहार करने में अवश्य उसकी जरूरत पड़ेगी; अर्थात् वह साम्राज्यके अन्तर्गत पारस्परिक राजनैतिक व्यवहार [डिप्लोमेसी] की भाषा होगी, यह सवाल जुदा है। उसके लिए अंग्रेजी जरूर रहे। हमें अंग्रेजी भाषासे कुछ भी द्वेष नहीं है। हमारा आग्रह तो इतना ही है कि उसे मर्यादासे