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भाषण : द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें

बाहर न जाने दिया जाये। साम्राज्यकी भाषा तो अंग्रेजी ही होगी और इसलिए हम अपने मालवीयजी, शास्त्रियर, बनर्जी जैसे लोगोंके लिए इसको पढ़ना अनिवार्य कर देंगे और यह विश्वास रखेंगे कि ये लोग विदेशोंमें भारतकी कीर्ति फैलायेंगे। परन्तु राष्ट्रकी भाषा अंग्रेजी नहीं हो सकती। अंग्रेजीको राष्ट्रभाषा बनाना कृत्रिम विश्वभाषा [एस्पेरेंटो] दाखिल करने जैसी बात है। अंग्रेजी राष्ट्रभाषा हो सकती है, यह कल्पना उसी प्रकार हमारी कमजोरीकी सूचक है जिस प्रकार एस्पेरेंटोको विश्वभाषा बनानेका प्रयत्न अज्ञानका सूचक है।

तब कौन-सी भाषा उन पाँच लक्षणोंसे युक्त है? यह माने बिना काम चल ही नहीं सकता कि हिन्दी भाषामें ये सारे लक्षण मौजूद हैं।

हिन्दी भाषा मैं उसे कहता हूँ, जिसे उत्तरमें हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी (उर्दूकी) लिपिमें लिखते हैं। इस व्याख्याका थोड़ा विरोध किया गया है।

ऐसी दलील दी जाती है कि हिन्दी और उर्दू दो अलग भाषाएँ हैं। यह दलील सही नहीं है। उत्तर भारतमें मुसलमान और हिन्दू दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। भेद पढ़े-लिखे लोगोंने डाला है। इसका अर्थ यह है कि हिन्दू शिक्षित-वर्गने हिन्दीको केवल संस्कृतमय बना दिया है। इस कारण कितने ही मुसलमान उसे समझ नहीं सकते। लखनऊके मुसलमान भाइयोंने उस उर्दूमें फारसी भर दी है और उसे हिन्दुओंके समझनेके अयोग्य बना दिया है। ये दोनों केवल पण्डिताऊ भाषाएँ हैं और उनको जनसाधारणमें कोई स्थान प्राप्त नहीं है। मैं उत्तरमें रहा हूँ, हिन्दू-मुसलमानोंके साथ खूब मिला-जुला हूँ, और मेरा हिन्दी भाषाका ज्ञान बहुत कम होने पर भी मुझे उन लोगोंके साथ व्यवहार रखने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई है। जिस भाषाको उत्तरी भारतमें आमलोग बोलते हैं, उसे चाहे उर्दू कहें चाहे हिन्दी दोनों एक ही भाषाकी सूचक हैं। यदि उसे फारसी लिपिमें लिखिये तो वह उर्दू भाषाके नामसे पहचानी जायेगी और नागरी लिपिमें लिखें तो वह हिन्दी कहलायेगी।

अब रहा लिपिका झगड़ा। अभी कुछ समय तक तो मुसलमान लड़के फारसी लिपिमें अवश्य लिखेंगे और हिन्दू अधिकतर देवनागरीमें लिखेंगे। 'अधिकतर' इसलिए कहता हूँ कि हजारों हिन्दू आज भी अपनी हिन्दी फारसी लिपिमें लिखते हैं और कितने ही तो देवनागरी लिपि नहीं जानते। अन्तमें जब हिन्दू-मुसलमानोंमें एक दूसरेके प्रति तनिक भी सन्देहकी भावना नहीं रह जायेगी और अविश्वासके सारे कारण दूर हो जायेंगे, तब जिस लिपिका ज्यादा जोर रहेगा, वह लिपि ज्यादा लिखी जायेगी और वही राष्ट्रीय लिपि हो जायेगी। इस बीच जिन मुसलमान भाइयों और हिन्दुओंको फारसी लिपिमें अर्जी लिखनी होगी, उनकी अर्जी सरकारी कार्यालयोंमें स्वीकार की जानी चाहिए।

इन पाँच लक्षणोंसे युक्त हिन्दीकी होड़ करनेवाली और कोई भाषा नहीं है। हिन्दीके बाद दूसरा दर्जा बँगलाका है। फिर भी बंगाली लोग बंगालके बाहर हिन्दीका ही उपयोग करते हैं। हिन्दी-भाषी जहाँ जाते हैं, वहाँ हिन्दीका ही उपयोग करते है और इससे किसीको अचम्भा नहीं होता। हिन्दी-भाषी धर्मोपदेशक और उर्दू-भाषी मौलवी