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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

सारे भारतमें अपने भाषण हिन्दीमें ही देते हैं और अपढ़ जनसाधारण उन्हें समझ लेते हैं। जहाँ अपढ़ गुजराती भी उत्तरमें जाकर थोड़ी-बहुत हिन्दीका उपयोग कर लेता है, वहाँ उत्तरका 'भैया' बम्बईके सेठकी नौकरी करते हुए भी गुजराती बोलनेसे इनकार करता है और सेठ 'भैया' के साथ टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेता है। मैंने देखा है कि ठेठ द्रविड़ प्रान्तमें भी हिन्दीकी आवाज सुनाई देती है। यह कहना ठीक नहीं कि मद्रासमें तो अंग्रेजीसे ही काम चलता है। वहाँ भी मैंने अपना सारा काम हिन्दीसे चलाया है। सैकड़ों मद्रासी मुसाफिरोंको मैंने दूसरे लोगोंसे हिन्दीमें बातचीत करते सुना है। इसके सिवा, मद्रासके मुसलमान भाई तो हिन्दी भाषा अच्छी तरह जानते हैं। यहाँ यह ध्यानमें रखना चाहिए कि सारे भारतके मुसलमान उर्दू बोलते हैं और उनकी संख्या सब प्रान्तोंमें कुछ कम नहीं है।

इस तरह हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा बन चुकी है। हमने वर्षों पहले उसका राष्ट्रभाषाके रूपमें उपयोग किया है। उर्दू भी हिन्दीकी इस शक्तिसे ही पैदा हुई है।

मुसलमान बादशाह फारसी अथवा अरबीको भारतकी राष्ट्रभाषा नहीं बना सके। उन्होंने हिन्दीके व्याकरणको मानकर फारसी लिपिको अपनाया और फारसी शब्दोंका ज्यादा उपयोग किया। परन्तु वे जनसाधारणके साथ विदेशी भाषासे व्यवहार नहीं चला सके। यह हालत अंग्रेज अधिकारियोंसे छिपी हुई नहीं है। जिन्हें सैनिक प्रशासनका अनुभव है, वे जानते हैं कि जवानोंके लिए हिन्दी या उर्दू पारिभाषिक शब्द बनाने पड़े हैं।

मद्रासके शिक्षित-वर्गके लिए इस मामलेमें कुछ कठिनाई है, फिर भी हम देखते हैं कि हिन्दी ही राष्ट्रभाषा हो सकती है।

महाराष्ट्री, सिन्धी, गुजराती और बंगाली लोगोंके लिए तो वह बड़ी आसान है। वे कुछ महीनोंमें हिन्दीपर अच्छा अधिकार प्राप्त कर सकते हैं, उसमें राष्ट्रीय काम-काज चला सकते हैं। तमिल भाइयोंके लिए यह उतनी सहल नहीं है। तमिल और अन्य दक्षिणी भाषाएँ द्रविड़ वर्गकी पृथक् भाषाएँ हैं और उनकी बनावट तथा उनका व्याकरण संस्कृतसे अलग ही है। कुछ शब्दोंकी एकताके सिवा कोई अन्य एकता संस्कृतज भाषाओं और द्रविड़ भाषाओं में नहीं पाई जाती। परन्तु यह कठिनाई सिर्फ आजके पढ़े-लिखे लोगों तक ही सीमित है। हमें उनके देश-प्रेमपर भरोसा करने और उनसे विशेष प्रयत्नसे हिन्दी सीख लेनेकी आशा करनेका अधिकार है। यदि भविष्यमें हिन्दीको राष्ट्रभाषाका स्थान दिया जाता है तो हर मद्रासी स्कूलमें हिन्दी पढ़ाई जायेगी और मद्रासका दूसरे प्रान्तोंसे विशेष परिचय होनेकी सम्भावना बढ़ जायेगी। अंग्रेजी भाषा द्रविड़ जनतामें प्रवेश नहीं पा सकी है। परन्तु हिन्दीको उनमें प्रवेश करने में देर नहीं लगेगी; तेलगू भाषी लोग आज ऐसा प्रयत्न कर भी रहे हैं। यदि यह सम्मेलन इस बारेमें राष्ट्रभाषा कैसी होनी चाहिए यह स्थिर कर सके, तब तो इस कामको पूरा करनेके उपाय करनेकी जरूरत भी मालूम होगी। जैसे उपाय मातृ-भाषाके बारेमें बताये गये हैं, वैसे ही आवश्यक परिवर्तनके साथ, राष्ट्रभाषाके बारेमें भी उपयुक्त हो सकते हैं। गुजरातीको शिक्षाका माध्यम बनानेमें खास तौरपर हमको ही प्रयत्न करना पड़ेगा। परन्तु राष्ट्रभाषाके आन्दोलनमें तो सारा भारत भाग लेगा।