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भाषण : द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें


हमने शिक्षाके माध्यम, राष्ट्रभाषा और शिक्षामें अंग्रेजीके स्थानके सम्बन्धमें विचार किया। अब हमें यह सोचना बाकी है कि हमारी पाठशालाओंमें दी जानेवाली शिक्षामें कमी है या नहीं।

इस विषयमें कोई मतभेद नहीं है। सरकार और लोकमत सब प्रचलित शिक्षा-पद्धतिको बुरी बताते हैं। इस बारेमें काफी मतभेद है कि इसमें क्या ग्राह्य है और क्या त्याज्य है। इन मतभेदोंपर बहस करने योग्य ज्ञान मुझमें नहीं है। मैं, जो विचार मैंने बनाये हैं, उन्हें इस सम्मेलनके आगे रख देनेकी धृष्टता करता हूँ।

शिक्षा मेरा क्षेत्र नहीं कहा जा सकता। इसलिए मुझे इस विषयमें कुछ भी कहते संकोच होता है। जब कोई अनधिकारी व्यक्ति अपने अधिकारसे बाहर बात करता है, तो मैं उसकी बातका खण्डन करने के लिए अधीर हो उठता हूँ। यदि कोई वैद्य वकील बननेका प्रयत्न करे, तो वकीलको गुस्सा आना ठीक ही है। इसी तरह मैं मानता हूँ कि शिक्षाके बारेमें जिसे कुछ भी अनुभव न हो उसे उसकी टीका करनेका कोई अधिकार नहीं है। इसलिए पहले मुझे दो शब्द अपने अधिकारके बारेमें कहने पड़ेंगे।

मैंने आधुनिक शिक्षापर अबसे पच्चीस वर्ष पहले ही विचार करना आरम्भ कर दिया था। मेरे और मेरे भाई-बहनोंके बच्चोंकी शिक्षाकी जिम्मेदारी मुझपर पड़ी। मुझे अपने स्कूलोंकी कमियाँ मालूम थीं, इसलिए मैंने अपने लड़कोंको शिक्षा देते हुए उनपर प्रयोग शुरू किये। मैंने उन्हें इधर-उधर भटकाया भी। मैंने किसीको कहीं, तो किसीको कहीं भेजा। किसी-किसीको मैंने स्वयं पढ़ाया। मैं दक्षिण आफ्रिका गया। वहाँ भी मेरा असन्तोष ज्योंका-त्यों बना रहा और मुझे इस बारेमें विशेष विचार करना पड़ा। वहाँ भारतीय शिक्षा-संघका[१] कारोबार बहुत समय तक मेरे हाथ में रहा; किन्तु अपने लड़कोंको मैंने स्कूलोंमें शिक्षा नहीं दिलवाई। मेरे सबसे बड़े लड़केने मेरी अलग-अलग अवस्थाएँ देखी थीं। उसने मुझसे निराश होकर कुछ समय तक अहमदाबादके स्कूलमें शिक्षा ली। परन्तु उसे ऐसा नहीं लगा कि उसे इससे लाभ हुआ। मैं ऐसा मानता हूँ कि जिन्हें मैंने स्कूल नहीं भेजा, उनका नुकसान नहीं हुआ है, और उन्हें अच्छी शिक्षा मिली है। उनकी कमी भी मैं जानता हूँ, परन्तु कमीका कारण यही है कि वे मेरे प्रयोगोंकी शुरूआतमें पल-पुसकर बड़े हुए, इसलिए उनपर सारे प्रयोगोंमें दृष्टिकी एकताके बावजूद उसमें किये गये परिवर्तनोंका प्रभाव पड़ा। दक्षिण आफ्रिकामें सत्याग्रहके समय कभी मेरे पास लगभग पचास लड़के पढ़ते थे।[२] इस स्कूलकी रचना अधिकतर मेरे हाथों हुई थी। उसका सम्बन्ध दूसरे स्कूलों या सरकारी शिक्षा-पद्धतिसे नहीं था। यहाँ भी ऐसा ही प्रयत्न चल रहा है और मैंने आचार्य ध्रुव और दूसरे विद्वानोंका आशीर्वाद लेकर अहमदाबादमें एक राष्ट्रीय स्कूल खोला है। उसे पाँच महीने हुए हैं। उसके प्रिंसिपल गुजरात कॉलेजके भूतपूर्व प्रोफेसर सांकलचन्द शाह हैं। उन्होंने प्रोफेसर गज्जरकी देखरेख में शिक्षा पाई है और उनके साथ दूसरे भी भाषाप्रेमी लोग हैं। इस योजनाके लिए मुख्य रूपसे मैं जिम्मेदार हूँ। परन्तु

 
  1. यहाँ नेटाल भारतीय शिक्षा संघकी ओर संकेत है। देखिए खण्ड २, पृष्ठ ३३४ और दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास, अध्याय ६।
  2. फीनिक्सकी पाठशालामें; देखिए खण्ड ९, पृष्ठ १२२, १३७-४१।