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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

उनके सहारे अपना कठिन काम निभा पाते हैं, यह संगीतकी शक्तिका एक उदाहरण है। अंग्रेज मित्रोंको मैंने गाना गाकर अपनी ठंड भगाते देखा है। हमारे बालक चाहे जब चाहे जैसे नाटकके गाने सीख लेते हैं और हारमोनियम वगैरा बेसुरे बाजे बजाते हैं। इससे उनका बड़ा नुकसान होता है। अगर संगीतकी शुद्ध शिक्षा मिले, तो नाटकके गीत गाने में और बेसुरे राग अलापनेमें उनका समय नष्ट न हो। जैसे सच्चा गवैया बेसुरा या बेवक्त नहीं गाता, वैसे ही शुद्ध संगीत सीखनेवाला अश्लील गाने नहीं गायेगा। जन-जागृतिके लिए संगीतका उपयोग किया जाना चाहिए। इस विषयपर डॉक्टर आनन्द कुमारस्वामीके[१] विचार मनन करने योग्य हैं।

व्यायाम शब्दमें खेल-कूद वगैराको शामिल किया गया है। परन्तु इसका भी किसीने खयाल नहीं किया। देशी खेल छोड़ दिये गये हैं और टेनिस, क्रिकेट और फुटबालका बोलबाला हो गया है। यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि इन तीनों खेलोंमें रस आता है। परन्तु हम पश्चिमी चीजोंके मोहमें न फँसते, तो इन्हीं जैसे मजेदार तथापि लगभग बिना खर्चके गेंद-बल्ला, गिल्ली-डंडा, खो-खो, मग-माटली, नवनागेली, सात-ताली, कबड्डी, और खारोपाट आदि खेलोंको न छोड़ते। ऐसी कसरत तथा कुश्तीके अखाड़े, जिसमें सभी अंगोंको पूरी-पूरी गति मिलती है और जिसमें बहुतसे लाभ निहित हैं, लगभग मिट गये हैं। मुझे लगता है कि यदि किसी पश्चिमी चीजकी हमें नकल करनी चाहिए तो वह 'ड्रिल' या कवायद है। एक मित्रने टीका की थी कि हमें चलना ही नहीं आता और एक साथ ठीक ढंगसे चलना तो हम बिलकुल नहीं जानते। हजारों आदमी एक ताल और शान्तिसे किसी भी परिस्थितिमें दो-दो, चार-चारकी कतार बनाकर चल सकें, यह योग्यता हममें नहीं है। ऐसी कवायद सिर्फ लड़ाईमें ही काम आती हो सो बात नहीं। परोपकारके बहुतेरे कामोंमें भी कवायद बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जैसे आग बुझाने, डूबे हुओंको बचाने, बीमारोंको डोलीमें ले जाने आदिमें कवायद बहुत ही कीमती साधन है। इस तरह हमारे स्कूलोंमें देशी खेल, देशी कसरतें, और पश्चिमी ढंगकी कवायद जारी करनेकी जरूरत है।

पुरुषोंकी शिक्षापद्धति जैसी दोषपूर्ण है, वैसी ही स्थिति स्त्रियोंकी शिक्षा-पद्धतिकी भी है। भारतमें स्त्री-पुरुषोंका क्या सम्बन्ध है, स्त्रीका आम समाजमें क्या स्थान है, इन बातोंपर विचार ही नहीं किया गया है।

प्रारम्भिक शिक्षाका बहुत-सा भाग दोनों वर्गोंके लिए समान हो सकता है। इसके सिवा और सब बातोंमें बहुत असमानता है। जैसे कुदरतने पुरुष और स्त्रीमें भेद रखा है, वैसे ही शिक्षामें भी भेदकी आवश्यकता है। संसारमें दोनोंका स्थान समान है। परन्तु उनके कामोंमें बँटवारा पाया जाता है। घरमें राज करनेका अधिकार स्त्रीका है। बाहरकी व्यवस्थाका स्वामी पुरुष है। पुरुष आजीविकाके साधन जुटानेवाला है, स्त्री संग्रह और खर्च करनेवाली है। स्त्री बच्चोंको पालनेवाली है, उनकी विधाता है, उसपर बच्चोंका चरित्र निर्भर है, वह बच्चोंकी शिक्षिका है, इस अर्थमें भी वह

 
  1. १८७७-१९४७; प्राच्यकला और संस्कृतिके मर्मश-समीक्षक, डांस ऑफ शिव आदि पुस्तकोंके लेखक।