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भाषण : द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें

सन्तानकी माता है। पुरुष इस अर्थ में सन्तानका पिता नहीं है। एक खास उम्रके बाद पिताका असर पुत्रपर कम हो जाता है। परन्तु माँ अपना दर्जा कभी नहीं छोड़ती। बच्चा आदमी बन जानेपर भी माँके सामने बच्चेकी तरह व्यवहार करता है। पिताके साथ वह ऐसा सम्बन्ध नहीं रख सकता।

यह योजना स्वाभाविक और ठीक हो, तो स्त्रीके लिए स्वतन्त्र कमाई करनेकी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए। जिस समाजमें स्त्रियोंको तार-मास्टर या टाइपिस्ट अथवा कम्पोजीटरका काम करना पड़ता हो, उसकी व्यवस्था बिगड़ी हुई ही होनी चाहिए। उस जातिने अपनी शक्तिका दिवाला निकाल दिया है और वह जाति अपनी पूँजीमें से खर्च करने लगी है, ऐसी मेरी राय है।

इसलिए जिस तरह स्त्रीको अंधेरेमें और हीन दशामें रखना बुरा है, उसी तरह उसे पुरुषके काम सौंपना निर्बलताका सूचक है और उसपर जुल्म करनेके बराबर है।

इसलिए एक खास उम्रके बाद स्त्रियोंके लिए दूसरी ही तरहकी शिक्षाका प्रबन्ध होना चाहिए। उन्हें गृह-व्यवस्था करनेका, गर्भकालमें सावधानी रखनेका, बालकोंका पालन-पोषण करनेका ज्ञान देनेकी जरूरत है। इस योजनाको बनानेका काम बहुत कठिन है। शिक्षाक्रममें यह नया विषय है। इस बारेमें खोज और निर्णय करनेके लिए चरित्रवान् और ज्ञानवान् स्त्रियों तथा अनुभवी पुरुषोंकी समिति नियुक्त करके कोई योजना बनवानेकी जरूरत है।

उपर्युक्त काम करनेवाली समिति कन्याकालसे शुरू होनेवाली शिक्षाका उपाय खोजेगी। परन्तु जिन कन्याओंका बचपनमें ही विवाह हो गया हो, उनकी संख्याका भी तो पार नहीं है। फिर यह संख्या प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। विवाहके बाद तो उनका पता ही नहीं चलता। उनके बारेमें मैंने अपने जो विचार 'भगिनी समाज पुस्तकमाला' की पहली पुस्तककी प्रस्तावनामें दिये हैं, उन्हींको यहाँ उद्धृत करता हूँ:

स्त्री-शिक्षाको हम केवल कन्या-शिक्षासे ही पूरा नहीं कर सकेंगे। सहस्रों लड़कियाँ बारह सालकी उम्रमें ही बाल-विवाहकी बलि चढ़ जाती हैं और हमारी दृष्टिसे ओझल हो जाती हैं। वे गृहिणी बन जाती हैं। यह पापपूर्ण प्रथा जबतक हमारे समाजसे नहीं मिटेगी, तबतक पुरुषोंको स्त्रियोंका शिक्षक बनना सीखना पड़ेगा। उनको इस विषयकी शिक्षा दिये जानेपर अनेक बातोंकी आशा कर सकते हैं। जबतक हमारी स्त्रियाँ हमारे विषयभोगकी सामग्री और रसोई करनेवाली न रहकर हमारी जीवन-सहचरी, अर्धांगिनी और सुख-दुःखकी साझीदार नहीं बनतीं, तबतक हमारे सारे प्रयत्न मिथ्या जान पड़ते हैं। कोई-कोई अपनी स्त्रीको जानवरके बराबर समझते हैं। इस स्थितिके लिए कुछ संस्कृतके वचन और तुलसीदासजीकी यह प्रसिद्ध चौपाई भी बहुत जिम्मेदार है। तुलसीदासजीने एक जगह लिखा है : "ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़नके अधिकारी।" तुलसीदासजीको मैं पूज्य मानता हूँ। परन्तु मेरी पूजा अंधी पूजा नहीं है। या तो उपर्युक्त चौपाई प्रक्षिप्त है, अथवा यदि वह तुलसीदासजीकी ही है तो उन्होंने उसे बिना विचारे केवल प्रचलित प्रथाके अनुसार जोड़ दिया है। संस्कृत वचनोंके