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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय
बारेमें ऐसा कुछ भ्रम व्याप्त पाया है कि संस्कृतमें लिखे श्लोक तो शास्त्र-वचन ही होने चाहिए। यह भ्रम मिटाकर स्त्रियोंको हीन समझनेकी जो प्रथा पड़ी हुई है, हमें उसे जड़से उखाड़ फेंकना होगा। दूसरी तरफ हममें से कितने ही विषयान्ध होकर स्त्रीकी पूजा करते हैं और जैसे हम ठाकुरजीको हर समय नये आभूषणोंसे सजाते हैं, वैसे ही वे स्त्रीको सजाते रहते हैं। इस पूजाकी बुराईसे भी हमें बचना जरूरी है। अन्तमें तो जैसे महादेवके लिए पार्वती, रामके लिए सीता और नलके लिए दमयन्ती थी, वैसे ही जब हमारे लिए हमारी स्त्रियाँ होंगी और वे हमारी बातचीतमें भाग लेंगी, हमारे साथ वाद-विवाद करेंगी, हमारे विचारोंको समझकर उनका पोषण करेंगी, हमारी बाहरी मुसीबतोंको इशारेमें समझकर अपनी अलौकिक शक्तिसे उनको दूर करनेमें भाग लेंगी और हमें शान्ति देंगी, तभी हमारा उद्धार हो सकेगा, उससे पहले नहीं। कन्या-शालाओंसे जल्दी ही ऐसी स्थिति प्राप्त करनेकी सम्भावना बहुत कम है। जबतक बाल-विवाहका फंदा हमारे गले में पड़ा है, तबतक पुरुषोंको अपनी स्त्रियोंका शिक्षक बनना पड़ेगा। और उनकी यह शिक्षा केवल अक्षर-ज्ञान तक ही सीमित नहीं होगी; उन्हें धीरे-धीरे राजनीति और समाज-सुधारके विषयोंकी शिक्षा भी दी जा सकती है। ऐसा करने में पहले अक्षर-ज्ञानकी जरूरत नहीं पड़ती। इसी तरह पुरुषको अपनी पत्नीके बारेमें अपना रवैया बदलना पड़ेगा। पत्नी जबतक वयस्क न हो जाये तबतक विद्योपार्जन करे और पति उसके साथ ब्रह्मचर्यपूर्वक रहे। यदि हम एकदम ही जड़ नहीं हो गये हैं तो हम बारह या पन्द्रह सालकी लड़कीपर प्रसवकी महावेदनाका बोझ हर्गिज नहीं डालेंगे। हमारा हृदय ऐसे विचार मात्रसे काँप जाना चाहिए।
विवाहित स्त्रियोंके लिए वर्ग खोले जाते हैं, उनके लिए भाषण होते हैं। यह सब अच्छा है। इस काममें लोग अपना समय भी देते हैं। यह सब हमारे खातेमें जमाकी ओर लिखा जाता है। परन्तु इसके साथ ही जबतक पुरुष-वर्ग उपरोक्त कर्त्तव्यका पालन नहीं करता, तबतक ऐसा मालूम होता है कि परिणाम बहुत अच्छा नहीं निकलेगा। गहरा विचार करनेपर यह बात सबको स्वयमेव सुस्पष्ट हो जायेगी।

हम जहाँ-जहाँ नजर डालते हैं, वहाँ-वहाँ दिखाई पड़ता है कि कच्ची नींवपर भारी इमारतें खड़ी की गई हैं। प्रारम्भिक शिक्षाके लिए चुने हुए शिक्षकोंको शिष्टाचारवश भले ही शिक्षक कहा जाये, परन्तु यथार्थमें उन्हें यह नाम देना शिक्षक शब्दका दुरुपयोग करना है। विद्यार्थीकी बाल्यावस्था अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। जिस अवस्थामें मिले हुए ज्ञानकी स्मृति अमिट होती है। उसी अवस्थामें उसपर कमसे-कम ध्यान दिया जाता है और वह चाहे जैसी सामान्यसे सामान्य पाठशालामें डाल दिया जाता है। मेरी समझमें कॉलेजों और हाईस्कूलोंमें साज-सामानपर इतना खर्च किया जाता है कि उसे यह गरीब देश नहीं उठा सकता। इसके विपरीत यदि प्रारम्भिक शिक्षा सुशिक्षित, प्रौढ़ और सदाचारी शिक्षकों द्वारा ऐसी जगह दी जाती हो जहाँ सृष्टि-सौन्दर्यका