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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय
का एक बहुत बड़ा हिस्सा समझ सकता है, हम उनके उपयोगके महत्त्वको हमेशासे अच्छी तरह समझते आये हैं। और हमने न्याय प्रशासन तथा सरकारी अमलदारों और जनताके बीच व्यवहृत फारसीके स्थानपर अंग्रेजीको नहीं, बल्कि इन भाषाओंको ही प्रतिष्ठित किया है। इसलिए शिक्षाकी किसी भी योजनामें इन देशी भाषाओंके अभ्यासको बहुत प्रोत्साहन मिलना नितान्त आवश्यक है। जनताका वह बड़ा हिस्सा जिसकी परिस्थितियाँ उसे विज्ञानके क्षेत्रमें विचरनेके लिए सुविधा प्रदान नहीं करतीं और जो विदेशी भाषाकी कठिनाइयोंको नहीं लाँघ सकता, उसे यदि शिष्ट यूरोपीय विज्ञानसे परिचित कराना हो तो वह देश [हिन्दुस्तान] की एक अथवा दूसरी भाषामें ही किया जा सकता है। इसीलिए हम अंग्रेजी भाषाको और वैसे ही हिन्दुस्तानकी देशी भाषाओंको यूरोपीय विज्ञानके प्रचारका साधन मानते हैं। हमारी इच्छा है कि हिन्दुस्तानकी प्रत्येक पाठशालामें इन भाषाओंका अच्छी तरहसे विकास हो तथा अपेक्षणीय गुणोंसे सम्पन्न, अनुभवी तथा कुशल शिक्षक इन पाठशालाओंमें उच्च वर्गोंका संचालन करें।

हमारे माननीय वाइसरॉय लॉर्ड चैम्सफोर्डने भी २२ फरवरी, १९१७ को दिल्लीमें शिक्षा निदेशकोंके सम्मेलनमें भाषण देते हुए देशी भाषाओंके स्थानपर अंग्रेजी भाषाको प्रमुख स्थान देनेसे जो नुकसान हुआ है, उसका विवरण दिया। उन्होंने कहा कि अगर अंग्रेज जनताको विदेशी भाषाके माध्यमसे शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती तो क्या होता? उन्होंने यहाँतक कहा कि बहुतसे अंग्रेज निराश होकर पढ़ना ही छोड़ देते। वे चालू शिक्षाके द्वारा शिक्षण देनेकी पद्धतिको 'विशस सिस्टम' [दूषित प्रणाली] कहते हैं। उनके वचन निम्नलिखित हैं:

मेरा अभिप्राय अंग्रेजी और देशी भाषाओंके सापेक्ष्य दावेसे है। वर्तमान कालमें हम अंग्रेजीको उच्च शिक्षा प्राप्त करनेके माध्यमके रूपमें मानते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि नौकरी प्राप्त करनेके लिए अंग्रेजीका ज्ञान पासपोर्ट है और देशी भाषाओं में अपेक्षित पाठ्यपुस्तकोंका अभाव है। लेकिन उसका परिणाम क्या होगा यह स्पष्ट है। एक विदेशी भाषाके जरिये कितने ही जटिल विषयोंको समझने के लिए विद्यार्थियोंको बड़ी परेशानी होती है और अनेक प्रसंगोंमें तो उन्हें [विद्यार्थियोंको] उस भाषाके ज्ञानकी कमी होनेके कारण पाठ्य पुस्तकोंको घोटनातक पड़ता है। हम घोटनेकी इस प्रवृत्तिकी तीव्र भर्त्सना करते हैं। लेकिन हमारे विचारानुसार विद्यार्थियोंकी ज्ञान-प्राप्तिकी तीव्र आकांक्षा सचमुच प्रशंसनीय है क्योंकि वे केवल पृष्ठ ही नहीं वरन् पूरीकी-पूरी किताबोंको उनका अर्थ समझे बिना रट लेते हैं। शिक्षाकी यह पद्धति निस्सन्देह उपहासास्पद है।... मैं आपसे तथा अपने-आपसे, विश्वविद्यालयसे सम्बद्ध व्यक्तियोंकी हैसियतसे, पूछना चाहूँगा कि यदि हमें विदेशी भाषाके द्वारा ही पूरी शिक्षा दी गई होती तो हम किस प्रकार आगे बढ़ते? मुझे आशंका है कि हमने कदाचित् उस प्रयत्नको निराश होकर छोड़ दिया होता। इस दूषित शिक्षा प्रणालीने विद्यार्थियोंके मार्गमें जो काँटे