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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

भाग नहीं लिया, इसका दोष शिक्षित-दलकी अपेक्षा सरकारपर ही अधिक है। यदि सरकारकी नीति आरम्भसे भिन्न प्रकारकी होती तो आज सरकारके पास अजेय सेना तैयार होती। लेकिन वर्तमान स्थितिके लिए कौन दोषी है, इस प्रश्नको हम जाने दें। जिस समय अंग्रेजी शासन स्थापित हुआ, उस समय करोड़ोंपर सत्ता चलानेके लिए बुद्धिमानीकी नीति यही मानी गई कि प्रजासे हथियार छीन लिये जायें और उसे सैनिक शिक्षा न दी जाये। लेकिन जब जागे तभी सबेरा समझकर राजा-प्रजा दोनोंको यह भूल सुधार लेनी चाहिए।

ये विचार यह मानकर पेश किये गये हैं कि वर्तमान प्रवाह उचित है। किन्तु वर्तमान स्थिति सब प्रकारसे ठीक है, इस बातसे मैं सहमत नहीं हूँ। हम जो आन्दोलन चला रहे हैं वह पश्चिमी परिपाटीका है। हम जो स्वराज्य चाहते हैं वह भी पश्चिमी नमूनेका है। इसका परिणाम यह होगा कि भारतको पश्चिमी देशोंके साथ प्रतियोगिता करनी पड़ेगी—उनका अनुसरण करना पड़ेगा। कई लोग कहते हैं कि दूसरा रास्ता ही नहीं है। मैं ऐसा नहीं मानता। भारत यूरोप नहीं है, जापान नहीं है, चीन नहीं है, इसे मैं भूल नहीं सकता। मेरे मनमें तो यह देववाणी समा गई है कि भारत ही कर्म-भूमि है; शेष सब भोग-भूमियाँ हैं। मुझे लगता है कि और देशोंसे इस देशका काम भिन्न है। भारतमें धार्मिक साम्राज्य भोगनेकी शक्ति है। जैसी तपस्या इस देशमें हुई वैसी और कहीं नहीं हुई। भारतको लोहेके हथियारोंकी जरूरत नहीं है। वह तो दिव्य अस्त्रोंसे लड़ता आया है और अब भी लड़ सकता है। अन्य देशोंने शरीर-बलकी उपासना की है। यूरोपमें जो दारुण युद्ध अभी चल रहा है वह इसका ज्वलन्त प्रमाण है। भारत आत्मबलसे सब-कुछ जीत सकता है। आत्माकी शक्तिके आगे शरीरकी शक्ति तृणवत् है, इसके अनेक उदाहरण हैं। ऐसा कवियोंने गाया है। अनुभवी मनुष्योंने वर्णन किया है। हृष्ट-पुष्ट ३० वर्षका जवान अपने ८० वर्षके बापके सामने बकरी हो जाता है। यह प्रेम-बलका उदाहरण है। प्रेम ही आत्मा है, आत्माका गुण है। इस प्रेमका उपयोग हम श्रद्धापूर्वक समस्त जगत् पर कर सकते हैं। हम धर्मके प्रति अपनी श्रद्धा खो बैठे हैं, इससे आधुनिक तूफानमें हम अपने पैर स्थिर नहीं रख सकते और इधर-उधर धक्के खाते फिरते हैं। इस बातपर आगे मैं और विचार करूँगा।

अपने इन विचारोंके बावजूद मैं स्वराज्यके आन्दोलनमें भाग लेता हूँ—क्योंकि सरकार आजकल जिस पद्धतिसे शासन कर रही है वह आधुनिक पद्धति है। इस पद्धतिका शुद्ध स्वरूप पार्लियामेंट है, इस बातको सरकार स्वयं मानती है। यदि ऐसी पार्लियामेंट हमें न मिले तो हम 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्ट:' हो जायेंगे [न तो हम स्वराज्यका अपना पुराना आदर्श सिद्ध कर पायेंगे और न हमें नया ही मिलेगा।] श्रीमती एनी बेसेंटका यह कहना बिलकुल ठीक है कि "या तो भारतको स्वराज्य मिले, नहीं तो यहाँ भूखों मरनेका रोग फैल जायेगा।" मैं आँकड़ोंके फेरमें नहीं पड़ना चाहता। मेरे लिए मेरी आँखोंकी गवाही पर्याप्त है। यह गवाही बताती है कि भारतमें दरिद्रता बढ़ रही है। दूसरा कोई नतीजा हो भी कैसे? जो देश अपना कच्चा माल बाहर भेजता है और बाहरसे उसकी चीज बनकर यहाँ आती है तब जो उन्हें लेता है, जो देश स्वयं कपास पैदा करता है फिर भी अपने कपड़ोंके लिए करोड़ों रुपये बाहर