पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 14.pdf/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५६
सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


यह योग्यता कैसे आयेगी? हमें भारतवर्षको प्रजासे स्वराज्य माँगना है। हमारी प्रार्थना उसी भारतीय प्रजासे है। जब भारतवर्षके किसान यह जानने लगेंगे कि स्वराज्य क्या है, तब स्वराज्यको कोई नहीं रोक सकेगा।

सर विलियम विल्सन हंटरने[१] लिखा है, "ब्रिटिश साम्राज्यमें अभीष्ट सिद्धिका सहजसे-सहज उपाय संग्राममें प्राप्त की हुई विजय है।" यदि हमारा शिक्षित-वर्ग चुपचाप इस लड़ाईमें शामिल हो जाता और अपना हिस्सा अदा करता तो मेरा विश्वास है कि हमारी माँग आज ही पूरी हो जाती; इतना ही नहीं, यह प्राप्ति कुछ अलग प्रकारकी होती है।

हम बहुधा कहते हैं कि भारतके सिपाहियोंने फ्रांस और मेसोपोटामियाके मैदानोंमें अपने प्राणोंकी आहुति दी है। इसका श्रेय हम शिक्षितोंको नहीं मिल सकता। इन सिपाहियोंको हमने तैयार नहीं किया और न सिपाही देशाभिमानसे प्रेरित होकर युद्ध-क्षेत्र में गये। उनको स्वराज्यका ज्ञान नहीं है। युद्धकी समाप्तिपर वे स्वराज्य माँगेंगे भी नहीं। वे अपने अन्नदाताका नमक अदा करने—अपनी नमक हलालीका परिचय देने—वहाँ गये हैं। स्वराज्यकी माँगके लिए हम उनको बीचमें नहीं ला सकते। शिक्षित-वर्गने लड़ाईमें भाग नहीं लिया है, इसके लिए वह दोषी नहीं है, इतना ही कह सकते हैं।

हमने कठिन समयमें राजभक्ति दिखाई है, इससे भी हमारी योग्यता सूचित नहीं होती। राजभक्ति गुण नहीं है। राजभक्ति तो राष्ट्रके अस्तित्वकी अनिवार्य आवश्यकता है। राजभक्तिसे स्वराज्य नहीं मिल सकता, यह तो स्वयंसिद्ध है।

स्वराज्यकी हमारी योग्यताका पता इस बातसे चलता है कि हममें स्वराज्यकी तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई है और हम यह अच्छी तरह जान गये हैं कि अधिकारी-वर्गने चाहे कितने ही शुद्ध भावसे कार्य किया हो, पर अब उसका अन्त समय आ रहा है। बस इतनी योग्यता हमें अपने कार्यके लिए काफी है। स्वराज्यके बिना अब भारतमें शान्ति सम्भव नहीं है।

किन्तु यदि स्वराज्यका आन्दोलन हम केवल सभाएँ करके ही करते रहे तो इससे प्रजाकी हानि होना सम्भव है। सभाएँ और व्याख्यान योग्य स्थान और योग्य समयपर हों, यह ठीक है; परन्तु सभाओं और व्याख्यानोंसे राष्ट्रका निर्माण नहीं हो सकता।

जिस प्रजाके हृदयमें स्वराज्यकी तरंगें हिलोरें मार रही हों उसमें और सब दिशाओंमें जागृतिके चिह्न दिखने चाहिए। स्वराज्यका पहला आधार प्रत्येक व्यक्ति है। "यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे" यह महावाक्य इस स्थानपर भी बिलकुल सच है। यदि हमारे हृदयमें निरन्तर लड़ाई चलती रहे, यदि हम टेढ़े चलें, अपनी इन्द्रियोंपर अंकुश रखनेके बदले इन्द्रियाँ हमारे ऊपर राज्य करती हों तो हमारे लिए स्वराज्यका अर्थ क्या हो सकता है? पहली सीढ़ी तो यह है कि हम अपने ही ऊपर राज्य करना सीखें।

इसके बाद कुटुम्ब : यदि कुटुम्बमें कलह हो, भाई-भाई लड़ें, कुटुम्बी एक साथ न रह सकें, अविभक्त कुटुम्ब यानी स्वराज्य भोगनेवाले कुटुम्ब भी झगड़कर विभक्त हो जायें तो हम स्वराज्यके योग्य कैसे बन सकते हैं?

 
  1. (१८४०-१९००); भारतीय मामलोंके विशेषज्ञ; देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३९६।