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भाषण : प्रथम गुजरात राजनीतिक परिषदमें


इसके बाद जाति : यदि हम जातिमें एक दूसरेसे द्वेषपूर्वक व्यवहार करें, जातियाँ अपना काम-काज न चला सकें, उनमें कोई व्यवस्था न हो, बड़े लोग बड़प्पन चाहें तथा जातिभाई स्वेच्छाचारी हों और यदि हम इतना संकुचित स्वराज्य भी न चला सकें तो राष्ट्रीय स्वराज्य कैसे चला सकेंगे?

कुटुम्ब और जातिके बाद शहर : अपने शहरका कारोबार हम स्वयं न चला सकें, अपनी गलियाँ साफ न रखें, हमारे घर खण्डहर हों, रास्ते टेढ़े-मेढ़े हों, शहरका कारोबार चलानेवाले लापरवाह, बे-जवाबदेह अथवा स्वार्थी हों तो हमें विशेष सत्ता ग्रहण करनेका क्या अधिकार है?

शहरकी व्यवस्था कर सकनेमें ही सच पूछिए तो स्वराज्यकी कुंजी है। इसलिए उसके विषयमें अधिक विचार करनेकी आवश्यकता है। भारतमें प्लेगने अपना घर बना लिया है।[१] हैजा तो हमारे साथ है ही। मलेरिया प्रति वर्ष सहस्रों प्राणियोंकी बलि लेता है। दुनियाके दूसरे हरएक हिस्सेमें लोगोंने वहाँसे प्लेगको मार भगाया है। ग्लासगोमें जाते ही वह निकाल दी गई, जोहानिसबर्गमें वह एक ही बार आ सकी।[२] वहाँकी नगरपालिकाओंने बड़े प्रयत्नसे एक ही मासमें उसको निर्मूल कर दिया। परन्तु प्लेगपर हम कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते। इसके लिए हम सरकारपर दोषारोपण नहीं कर सकते। सच पूछिए तो दरिद्रताको भी हम दोष नहीं दे सकते। प्लेगके प्रतिकारमें हमें कोई भी नहीं रोकता—हमारे रास्ते में रुकावटें नहीं डालता। अहमदाबाद-जैसा शहर दरिद्रताका बहाना करके नहीं छूट सकता। मुझे डर है कि प्लेगके बारेमें हमें अपनी जिम्मेदारी माननी ही पड़ेगी। यह आश्चर्यकी बात है कि जब हमारे मुहल्लोंमें—हमारे रहनेके स्थानोंमें—प्लेग जारी रहता है, तब अंग्रेजोंके मुहल्लोंमें उसका पता भी नहीं लगता। इसका कारण भी शीघ्र समझमें आ जाता है। वहाँ हवा स्वच्छ रहती है, घर दूर-दूर हैं, रास्ते चौड़े और साफ हैं और पाखानोंकी व्यवस्था बहुत अच्छी है। हमारे यहाँ तो पाखाने जाना नरक-वास करने जैसा है। जिस देशमें ९० फीसदी लोग नंगे पाँव चलते हैं, लोग चाहे जहाँ थूकते हैं, जहाँ चाहें पाखाना फिरते हैं और ऐसे ही रास्तोंपर हमें चलना पड़ता है। ऐसी दशामें यदि वहाँ प्लेग अपना डेरा डाले तो आश्चर्यकी कौन-सी बात है?

जबतक हम अपने शहरोंकी हालत नहीं बदलते, अपनी बुरी आदतोंको नहीं छोड़ते, अपने पाखानोंको नहीं सुधारते तबतक हमारे लिए स्वराज्यका मूल्य कुछ भी नहीं है।

यहाँ एक बात कहना अनुचित न होगा। हम अपने सबसे उपयोगी सेवक मेहतरोंको अस्पृश्य मानते हैं। उसका फल यह होता है कि हम उन्हें अपने पाखाने भी अच्छी तरह साफ नहीं करने देते और खुद उन्हें साफ करते नहीं; क्योंकि धर्मके नामपर हम मानते हैं कि उससे हम अशुद्ध हो जायेंगे। इसलिए यद्यपि हम स्वयं स्वच्छ माने जाते हैं तथापि हमारे घरका एक भाग दूसरे देशोंकी तुलनामें सबसे ज्यादा गन्दा रहता है और इसी कारण हम सदा गंदी हवामें पलते और बड़े होते हैं। जबतक हम गाँवोंमें रहते थे तबतक हम आरामसे थे। परन्तु शहरोंमें हम अपनी कुटेवोंके कारण आत्मघात कर रहे हैं।

 
  1. भारतमें यह बीमारी १९१७ में फैली और जुलाई १९१७ से जून १९१८ के बीच लगभग ८०,००० लोग मरे।
  2. १९०४ में; देखिये खण्ड ४, पृष्ठ १६२-३ व ५, पृष्ठ ११४-५।

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