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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


जहाँ लोग इतनी बड़ी संख्यामें बेमौत मरते हों वहाँ ऐसा ही मालूम होता है कि लोगोंमें धर्म, कर्म और आचारका अभाव है। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि प्लेगको नष्ट करना हमारी शक्तिके बाहर नहीं है। यदि हम प्लेगको निर्मूल कर सकें तो इससे हमारी स्वराज्य-विषयक योग्यता जितनी बढ़ेगी उतनी महान् आन्दोलनसे भी नहीं बढ़ सकेगी। इस सवालपर हमारे डॉक्टरों और वैद्योंको विचार करना चाहिए।

हमारे पड़ोसमें ही डाकोरजीका प्रसिद्ध धाम है। मैंने उसे देखा है। उस पवित्र धामकी अपवित्रताका पार नहीं है। मैं अपनेको शुद्ध वैष्णव मानता हूँ इसलिए मुझे इस विषयमें आलोचना करने का अधिक अधिकार है। डाकोरजीमें ऐसी घोर गन्दगी है कि जिसे स्वच्छताकी आदत हो उसे डाकोरजीमें एक दिन बिताना भी कठिन हो जाता है। यात्री, जैसा उनके जीमें आता है उस तरह, तालाबको और रास्तोंको गन्दा करते हैं। मन्दिरके मुखिया लोग आपसमें लड़ते हैं और रणछोड़रायजीके आभूषणों आदिको हिफाजतके लिए "रिसीवर" नियुक्त हुआ है, सो अलग। इस स्थितिको सुधारना हमारा काम है। स्वराज्य लेनेको दौड़नेवाले हम गुजराती यदि अपना ही आँगन साफ न रखें, घर न सुधारें तो स्वराज्यकी सेनामें हम कौन-सी विजय प्राप्त कर लेंगे।

शहरोंमें शिक्षाकी स्थितिपर विचार करनेसे भी निराशा ही होती है। अपने निजी साहससे लोगोंकी शिक्षाका प्रबन्ध करना हमारा पवित्र कर्तव्य है। किन्तु होता यह है कि देशमें हजारों बालक अशिक्षित रहते हैं और उनकी शिक्षाके लिए हमारी दृष्टि सरकारपर लगी रहती है।

शहरोंमें शराबका व्यसन बढ़ रहा है। ईरानियोंकी [चाय-आदिकी] दुकानें बढ़ रही हैं। जुआ बढ़ रहा है। यदि हम इन सबका प्रतिकार न कर सकें तो स्वराज्य हम कैसे प्राप्त कर सकेंगे? स्वराज्यका अर्थ ही यह है कि हम अपना कारोबार स्वयं चलायें।

जान पड़ता है कि अब वह समय आ गया है जब हमारे और हमारे बच्चोंके मुँहसे दूध छिन जायेगा—गुजरातमें डेरियाँ हमारा बड़ा अहित कर रही हैं। वे बहुतसा दूध खरीदकर मक्खन, पनीर इत्यादि बनाकर बेचती हैं। जिस प्रजाका आधार मुख्य करके दूध रहा है वह इस प्रकार अपनी खूराकको कैसे नष्ट होने देती है? ऐसे स्वार्थी मनुष्य क्यों जन्म लेते हैं, जो प्रजाके आरोग्यपर ध्यान न देकर पैसेके लिए उसके खानेकी वस्तुओंका अयोग्य व्यापार करते हैं? दूध, घी तथा दूधकी बनी चीजें प्रजाके लिए इतनी अमूल्य है कि नगरपालिकाओंको उनपर पूरा अंकुश रखना चाहिए। हम इस सम्बन्ध में क्या कर रहे हैं?

मैं अभी-अभी एक ऐसे प्रदेशसे आया हूँ, जहाँ बकरीदके मौकेपर दंगे हुए। दो जातियाँ एक क्षुद्र बातपर लड़ पड़ीं, उसमें उपद्रवी लोग शामिल हो गये और झगड़ा बढ़ गया। हम उसका कोई उपाय न कर सके। केवल सरकारकी कार्रवाईपर ही हमें अवलम्बित होना पड़ा। इससे हमारी कमजोरी प्रकट होती है।

यहाँ कुछ देरके लिए गो-रक्षापर विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। यह एक महत्त्वका सवाल है। फिर भी उसे हल करनेका कार्य हमने तथाकथित गो-रक्षा सभाओंपर छोड़ दिया है। गो-रक्षाकी प्रथा पुरानी मालूम होती है। उसकी उत्पत्ति