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भाषण : प्रथम गुजरात राजनीतिक परिषदमें

इस देशकी विशिष्ट आवश्यकताओंमें से हुई है। जहाँ ९० सैकड़ा मनुष्य खेतीपर गुजर करते हैं, जहाँ खेतीके लिए बैलोंकी जरूरत होती है, वहाँ गायकी रक्षा करना सहज कर्त्तव्य हो जाता है। ऐसी जगह मांसाहारीको भी गो-मांसका त्याग करना चाहिए। ये स्वाभाविक कारण गायकी रक्षा करनेके लिए काफी माने जाने चाहिए। पर यहाँ विचित्र परिस्थिति है। यहाँ गो-रक्षाका मुख्य अर्थ यह देख पड़ता है कि गायें मुसलमान भाइयोंके हाथ न पड़ने दी जायें, उन्हें गो-मांसका भक्षण न करने दिया जाये। हमारे शासकोंको गायका मांस जरूरी होता है। उनके लिए रोज हजारों गायोंका वध होता है। इसे रोकनेके लिए हम कुछ नहीं करते। कलकत्तमें हिन्दू ही फूंकेकी क्रूर क्रियाके द्वारा गायका सारा दूध रोज खींच लेते हैं। हमने शायद ही कभी गायके साथ की जानेवाली इस घोर हिंसाको मिटानेकी चेष्टा की हो। गुजरातमें हिन्दू बैलको हाँकनेके लिए कील लगी लकड़ियाँ काममें लाते हैं। हम इसके खिलाफ कुछ नहीं कहते। अपने शहरके बैलोंकी दशा करुणाजनक है। गाय और उसके वंशकी रक्षा करनेका काम बड़ा भारी है। उसे हमने मुसलमानोंके साथ झगड़ा करनेका संकुचित रूप देकर गो-वधकी वृद्धि की है। गो-रक्षाके लिए मुसलमान भाइयोंका वध धर्म नहीं, अधर्म है। मेरा विश्वास है, यदि हम मुसलमान भाइयोंके साथ प्रेमपूर्वक परामर्श करें तो वे भी भारतकी स्थितिपर ध्यान देकर गायकी रक्षाके लिए कटिबद्ध हो जायेंगे। हम उनसे विनय करें, सत्याग्रह करें, तो गो-रक्षाके कार्यमें हम उनका सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु ऐसा करनेके पहले इस प्रश्नका सच्चा स्वरूप समझ लेना चाहिए। अपने भाइयोंके मारनेके बदले हमें स्वयं मरनेको तैयार होना चाहिए। परन्तु इसका होना तभी संभव है, जब हम गायका मूल्य समझ लेंगे और हमारे हृदयमें शुद्ध दयाका स्फुरण होगा। यह कार्य करने में एक साथ और भी कई कार्य हो जायेंगे। हिन्दू-मुसलमानोंके बीचका झगड़ा खत्म हो जायेगा, गायकी रक्षा होगी, और शुद्ध और सस्ता घी-दूध मिलेगा। इसके साथ ही हमारे बैल दुनियामें सबसे बढ़कर होंगे। यदि हमारी तपस्या शुद्ध होगी तो हम अंग्रेज, मुसलमान या हिन्दू सबके हाथसे गो-वधका होना रोक सकेंगे। यह एक कार्य भी स्वराज्यको समीप लानेवाला है।

ऊपर जिन सवालोंकी चर्चा हुई है उनमें से अधिकांश नागरिक जीवनसे सम्बन्ध रखते हैं। हम देख सकते हैं कि अपने देशका कारोबार हम तभी चला सकते हैं जब इन नागरिक सवालोंसे सम्बन्धित कारोबारको अच्छी तरह नीतिपूर्वक चला दिखायें।

स्वदेशीका आन्दोलन देशमें नाम-मात्रको ही है, ऐसा कहना गलत न होगा। हमें यह नहीं सूझता कि स्वदेशीमें लगभग स्वराज्यकी चाबी है। यदि हमें अपनी भाषा से अरुचि हो, देशका बना हुआ अपना कपड़ा अच्छा न लगे, अपना पहनावा-पोशाक बुरी मालूम हो, अपनी चोटीकी शरम आये, अपनी जलवायु और भोजन अच्छा मालूम न हो, अपने आदमी अनगढ़ मालूम हों और अपने साथ रहने योग्य न जान पड़ें, अपनी सभ्यता अच्छी न लगे तथा विदेशी सभ्यता अच्छी लगे, सारांश यह कि अपना सब बुरा और विदेशी सब अच्छा लगे तो स्वराज्यका क्या अर्थ रह जायेगा—यह मेरी समझमें नहीं आता। यदि हमें हर चीज विदेशी ही ग्राह्य मालूम होती हो तब तो अभी हमें विदेशी तालीमकी बहुत आवश्यकता है; क्योंकि विदेशी रीति-नीतिने हमारे जन-