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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

समाजमें बहुत ही कम प्रवेश किया है। मेरा खयाल तो यह है कि हमें स्वदेशीके प्रति प्रेम ही नहीं अनुराग भी होना चाहिए। तभी हम स्वराज्यका रसास्वादन कर सकेंगे। हमारे प्रत्येक कार्यमें स्वदेशीकी छाप दृष्टिगोचर होनी चाहिए। स्वराज्यकी इमारत इसी कल्पनाकी नींवपर खड़ी की जा सकती है कि कुल मिलाकर हमारी अधिकांश वस्तुएँ अच्छी है। स्वदेशीका आन्दोलन यहाँ बहुत बड़े पैमानेपर होना चाहिए। जहाँ-जहाँ स्वराज्यकी हलचल हुई है वहाँ-वहाँ लोगोंने स्वदेशीके महत्त्वको पूरी तरह समझा है। स्कॉटलैण्डके सिपाही मृत्यु के भयसे भी अपना किल्ट [घाघरा] छोड़नेकी इच्छा नहीं करते। हम लोग हँसीमें उन्हें 'घाघरा पलटन' कहते हैं। किन्तु इन घाघरा पहननेवालोंके बलको दुनिया जानती है। वह असुविधाजनक है, शत्रु उसके कारण उन्हें आसानीसे अपना निशाना बना सकते हैं, फिर भी स्कॉटलैण्डके सिपाही उसे छोड़ते नहीं। मेरा यह अभिप्राय नहीं है कि हम अपने दुर्गुणोंका न त्याग करें; मेरा अभिप्राय यह है कि हमारी चीज विगुण हो तो भी हमारे लिए ग्राह्य है और विदेशी स्वनुष्ठित होनेपर भी त्याज्य है। जो आज विगुण है उसे हम अपने पराक्रमसे गुणपूर्ण कर लेंगे। मैं चाहता हूँ कि इस परिषद्के सदस्योंकी रग-रगमें स्वदेशीके प्रति प्रेम और उत्साह व्याप्त हो। वे महान् संकटों और कष्टोंको सहकर भी स्वदेशी-व्रतको धारण करें और निष्ठापूर्वक उसका पालन भी करें। यदि ऐसा हो जाये तो हमें घर बैठे स्वराज्य मिल जायेगा

पूर्वोक्त दृष्टान्तोंसे स्पष्ट हो जाता है कि हमारा आन्दोलन दोहरा होना चाहिए। सरकारको आप प्रार्थनापत्र भले ही भेजिए, शाही परिषद् में आप अपने अधिकार भले ही माँगिए; परन्तु लोक-जागृतिके लिए हमें इन कार्योंकी अपेक्षा आन्तरिक आन्दोलनकी ज्यादा आवश्यकता है। बाह्य व्यापारमें दम्भ, स्वार्थ आदिके प्रवेशका भय है; आन्तरिक व्यापारमें इसकी बहुत कम सम्भावना है। आन्तरिक क्रियाके बिना बाहरी क्रिया न केवल शोभेगी नहीं, बल्कि संभव है वह निरर्थक सिद्ध हो। मेरे कथनका यह अर्थ नहीं है कि हम आन्तरिक क्रियासे एकदम खाली हैं। परन्तु मैं यह कह देना चाहता हूँ कि हम आन्तरिक क्रियाको यथेष्ट महत्त्व नहीं देते।

यह भी सुनाई देता है कि एक बार भारतकी शासन-सत्ता हाथमें आ जाने दीजिए, फिर यह सब ठीक हो जायेगा। इससे बड़ा भ्रम और नहीं हो सकता। कोई देश इस प्रकार स्वतंत्र नहीं हुआ। बसन्त जब बहारपर आता है उस समय उसकी शोभा हरएक झाड़में देखी जा सकती है, सारी भूमिमें नवयौवनका संचार हो जाता है। इसी प्रकार जब हम स्वराज्यके बसन्तमें प्रवेश करेंगे उस समय अगर यहाँ कोई यात्री आये तो वह हमारे जीवनमें हर जगह नवयौवनकी ताजगी देखेगा। वह देखेगा कि प्रजाके सेवक अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार विभिन्न सार्वजनिक कार्यों में लगे हुए हैं।

यदि यह कहा जाये कि हमारी प्रगति यथेष्ट नहीं है तो इसके दो कारण भी स्वीकार करने पड़ेंगे। हमने अपनी स्त्रियोंको अपने आन्दोलनसे अलग रखा, इससे हम पक्षाघातके शिकार हो गये हैं। जनता एक पाँवसे चल रही है। यही कारण है कि उसके सारे कार्य अधूरे और आधे होते देखे जाते हैं। इसके अतिरिक्त देशका शिक्षित समाज विदेशी भाषाके द्वारा शिक्षा पाकर अशक्त हो रहा है। और जो शक्ति वह प्राप्त करता है उसका लाभ देशको नहीं मिलता। इस विषयपर अपने विचार मैं गुज-