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भाषण : प्रथम गुजरात राजनीतिक परिषदमें

रात शिक्षा परिषद् में[१] पेश कर चुका हूँ इसलिए यहाँ उन्हें दुहराना नहीं है। इस परिषद्ने अपना सारा कार्य मातृ-भाषामें करनेका निश्चय करके बहुत अच्छा किया है। मुझे आशा है कि गुजराती जनता किसी भी प्रलोभनमें आकर इस निश्चयसे टलेगी नहीं।

शिक्षित-वर्गका, स्वराज्य-प्रेमियोंका कार्य जन-समाजमें मिले बिना नहीं चलेगा। हम जनताके एक भी अंगकी उपेक्षा नहीं कर सकते, किसीको छोड़ नहीं सकते। सबको साथ लेकर चलेंगे तब हम बढ़ सकेंगे। यदि शिक्षित-वर्ग सामान्य जनतासे मिलता-जुलता रहता तो बकरीदके मौकेपर जो दंगे हुए वे होते ही नहीं।

अन्तिम विषयपर आनेके पहले मुझे एक अन्य कर्त्तव्यका पालन करना है और कुछ सुझाव भी देने हैं।

यमराज प्रतिवर्ष हमारे नेताओंमें से कुछको उठा लेते हैं। पिछले बारह महीनोंमें ऐसी जितनी घटनाएँ हमारे यहाँ हुई हैं उन सबका उल्लेख तो मैं यहाँ नहीं करना चाहता किन्तु हिन्दके दादा ऋषि-तुल्य स्वर्गीय दादाभाई नौरोजीका नाम तो छोड़ा नहीं जा सकता। उनकी देशसेवाकी कीमत आँकनेका काम मेरा नहीं हो सकता। मैं तो उन लोगोंमें से हूँ जो उनके चरणोंमें बैठकर बड़े हुए हैं। ठेठ युवावस्थामें जब मैं विलायत गया तब मैंने उनके दर्शन किये थे। उनके नामका एक सिफारिशी पत्र मैं उनके पास ले गया था; तभीसे मैंने उनकी पूजा करना सीखा। उनकी निष्कलंक और अखण्ड देशसेवा, उनकी निष्पक्ष समदृष्टि, उनका शुद्ध चरित्र एक ऐसा आदर्श उपस्थित करते हैं जिसका भारत हमेशा अनुकरण करता रह सकता है। ईश्वर उनकी आत्माको शान्ति दे। उनके परिवारको और राष्ट्रको यह वियोग सहन करनेकी शक्ति दे। उनके चरित्रको अपने जीवनमें उतारकर और उनकी देशसेवाका अनुसरण करके और अपने हृदय में स्थान देकर हम उन्हें सदाके लिए अमर कर सकते हैं।

वाइसरॉय महोदयने वीरमगाँवकी सीमापर ली जानेवाली चुंगीको रद करनेकी घोषणा की है, इसके लिए उन्हें धन्यवाद देना हमारा कर्त्तव्य है। यह कार्य जल्दी हो जाना चाहिए था। प्रजा उसके बोझसे पिसी जा रही थी। उसके कारण कई लोगोंका व्यापार चौपट हो गया; कई स्त्रियोंको भी उसके कारण बहुत कष्ट भोगना पड़ा। अभी इस निर्णयपर अमल शुरू हुआ नहीं मालूम होता। आशा है कि शीघ्र ही शुरू हो जायेगा।

रेलके तीसरे दर्जे के मुसाफिरोंको जो कष्ट होते हैं उसके विषयमें मैंने अपना अनुभव समाचारपत्रोंके द्वारा जनताके सामने रखा है।[२] ये कष्ट सचमुच असह्य हैं। भारतकी प्रजा बड़ी सीधी-सादी है। उसे चुपचाप दुःख सहन करनेकी शिक्षा मिली है। यही कारण है कि वह लाखों दुःख सहती है तथापि उनका निवारण नहीं होता। इस प्रकार दुःख सहन करने में बहुत गुण है; परन्तु उनकी सीमा होनी चाहिए। निर्बलताके कारण कष्ट-सहन करना पौरुषहीनताका सूचक है। रेलगाड़ियोंमें यात्री जो कष्ट सहते जा रहे

 
  1. देखिए "भाषण : द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें", २०-१०-१९१७।
  2. देखिए खण्ड १३, "पत्र : अखबारोंको", पृष्ठ ५५८-६२।