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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

हैं उससे पौरुषहीनता ही सूचित होती है। ये कष्ट दो प्रकारके हैं—एक तो रेल-विभागकी अकर्मण्यतासे होनेवाले और दूसरे यात्रियोंकी लापरवाहीसे होनेवाले। इनके इलाज भी दो प्रकारके हैं : पहला उपाय है कि जिन कष्टोंका सम्बन्ध रेलवे विभागसे है, उनकी शिकायतें पीड़ित लोगोंको रेलवे विभागसे करनी चाहिए। शिकायत गुजरातीमें [अपनी मातृभाषामें] भी लिखी जा सकती है। इसके सिवा समाचारपत्रोंके द्वारा भी पुकार मचाई जाये। दूसरा उपाय यह है कि ज्ञानवान् यात्री अज्ञानी यात्रियोंको ढंग सिखाएँ। उनकी गन्दगी, लापरवाही इत्यादि की ओर उनका ध्यान आकर्षित करें। इस कार्यके लिए स्वयंसेवकोंकी आवश्यकता है। इसमें सब लोग यथाशक्ति भाग ले सकते हैं। नेता लोग कभी-कभी इन दुःखोंका अनुभव करने के लिए अपना परिचय दिये बिना तीसरे दर्जेमें यात्रा करें। फिर उन्हें जो अनुभव हो उसकी खबर रेलवे विभागको दें। ऐसा करनेपर थोड़े ही दिनोंमें महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखलाई देंगे।

फीजी इत्यादि टापुओंमें भेजे जानेवाले गिरमिटिया मजदूरोंके लिए एक समिति लन्दनमें स्थापित हुई थी। उस कमेटीने अपने विचार बाजाब्ता प्रकाशित किये हैं और भारत-सरकारने उनपर लोगोंकी राय माँगी है। इस विषयपर भी मैं अपनी सम्मति समाचारपत्रोंमें दे चुका हूँ। अतएव यहाँ उसके विवेचनकी आवश्यकता नहीं। मैंने अपनी राय यह दी है कि समितिकी सिफारिशोंका परिणाम भी एक प्रकारका गिरमिट ही होगा। हमें एक ही सम्मति देनी चाहिए और वह यह है कि हम अपने मजदूरोंको किसी प्रकारके बन्धनमें बँधकर विदेश जाते नहीं देखना चाहते। उसकी जरूरत नहीं है। गिरमिटका नियम बिलकुल रद होना अत्यन्त आवश्यक है। उपनिवेशोंको किसी प्रकारकी सुविधा कर देनेके लिए हम बँधे नहीं हैं।

अब मैं अन्तिम विषयपर आता हूँ। अभीष्ट वस्तुकी प्राप्तिके लिए दो मार्ग हैं : सत्याग्रह और दुराग्रह। हमारे ग्रन्थोंमें इन्हीं को दैवी और आसुरी प्रवृत्ति कहा है। सत्याग्रहके मार्गमें सदैव सत्यका आग्रह रहता है। किसी भी कारणसे सत्यका त्याग नहीं किया जाता। इसमें देशके लिए झूठका प्रयोग भी नहीं हो सकता। सत्याग्रहकी मान्यता है कि सत्यकी सदैव ही जय होती है। कभी-कभी मार्ग कठिन जान पड़ता है; परिणाम भयंकर मालूम होता है; और ऐसा लगता है कि सत्यको थोड़ा छोड़ दें तो सफलता मिल जायेगी। किन्तु सत्याग्रही सत्यका त्याग नहीं करता। उसकी श्रद्धा ऐसे समय भी सूर्यके तेजके समान चमकती रहती है। सत्याग्रही निराश तो होता ही नहीं। उसके पास सत्यकी तलवार होती ही है इसलिए उसे लोहेकी तलवार या गोली-बारूदकी आवश्यकता नहीं होती। वह आत्मबल या प्रेमसे शत्रुको भी अपने वशमें कर लेता है। मित्र-मण्डलीमें प्रेमकी कसौटी नहीं होती। यदि मित्र मित्रपर प्रेम करे तो इसमें कोई नवीनता नहीं है। वह गुण नहीं है, उसमें श्रम नहीं है; परन्तु शत्रुके प्रति मित्रता रखनेमें प्रेमकी कसौटी है। इसमें गुण है, श्रम है। इसीमें पुरुषार्थ है और इसीमें सच्ची बहादुरी है। शासन-कर्त्ताओंके प्रति भी हम ऐसी दृष्टि रख सकते हैं। ऐसी दृष्टि रखनेसे हम उनके अच्छे कार्योंका मूल्य आँक सकेंगे और उनकी भूलोंके लिए द्वेष करनेके बजाय प्रेम-भावसे वे भूलें बताकर उन्हें तुरन्त दूर करनेमें समर्थ होंगे। इस प्रेम-भावमें