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भाषण : प्रथम गुजरात राजनीतिक परिषदमें

भयको कोई स्थान नहीं है। निर्बलता तो उसमें हो ही नहीं सकती। निर्बल मनुष्य प्रेम नहीं कर सकता; प्रेम तो शूर ही दिखा सकते हैं। प्रेमकी दृष्टिसे विचार करें तो हमें अपने शासन-कर्त्ताओंको सन्देहकी दृष्टिसे नहीं देखना चाहिए और न यह मानना चाहिए कि वे सब काम बुरी नीयतसे ही करते हैं। हमारे द्वारा प्रेमपूर्वक की हुई उनके कार्योकी परीक्षा इतनी शुद्ध होगी कि उनके ऊपर उसकी छाप पड़े बिना न रहेगी।

प्रेम लड़ सकता है। प्रेमको कितनी ही बार लड़ना पड़ता है। सत्ताके मदमें मनुष्य अपनी भूलोंको नहीं देखता। इस समय सत्याग्रही बैठा नहीं रहता। वह स्वयं दुःख सहन करता है। सत्ताधीशकी आज्ञा—उनके कानूनों—का सादर निरादर करता है और उस निरादरके परिणामस्वरूप होनेवाले कष्ट—जेल, फाँसी इत्यादि सहन करता है। इस प्रकार आत्मा उन्नत होती है, इसमें जो समय जाता है वह व्यर्थ नहीं जाता।

इस प्रकार विनयपूर्वक किये गये निरादरमें यदि बादमें भूल प्रतीत हो तो इस भूलका परिणाम मात्र सत्याग्रही और उसके साथियोंको सहन करना पड़ता है। इसमें सत्ताधीशसे अनबन नहीं होती, बल्कि अन्तमें वे सत्याग्रहीके वशमें हो जाते हैं। वे समझ लेते हैं कि सत्याग्रहीके ऊपर हमारा शासन नहीं चल सकता; सत्याग्रहीकी सम्मति और इच्छाके बिना वे एक भी काम उससे नहीं ले सकते। यह स्वराज्यकी परिसीमा हुई; क्योंकि इसमें सम्पूर्ण स्वतन्त्रता आ जाती है। ऐसा न समझना चाहिए कि इस प्रकारका सत्याग्रह सभ्य और सुसंस्कृत सत्ताधीशके सामने ही हो सकता है। वज्रके समान कठोर हृदयवाला भी आत्मबलकी अग्निमें पिघल सकता है। नीरो-जैसा क्रूर शासक भी इस बलके आगे बकरीकी तरह दीन बन जाता है। यह अतिशयोक्ति नहीं है। यह तो बीजगणितके समीकरणके प्रश्न समान है। यह सत्याग्रह भारतवर्षका विशिष्ट शस्त्र है। भारतमें और भी शस्त्रास्त्र है; परन्तु सत्याग्रहका ही उपयोग यहाँ अधिक हुआ है। यह सर्वव्यापक शक्ति है और इसका प्रयोग प्रत्येक समय और प्रत्येक स्थितिमें किया जा सकता है। इस सत्याग्रहके लिए कांग्रेस आदिकी मुहरकी भी आवश्यकता नहीं। जिसको इस शक्तिका ज्ञान हो जाता है, वह इसका प्रयोग किये बिना नहीं रहता। पलकें जिस तरह आप ही आँखोंकी रक्षा किया करती हैं उसी प्रकार सत्याग्रह प्रकट होकर आत्म-स्वतन्त्रताकी रक्षा स्वयं ही किया करता है।

दुराग्रह इससे विपरीत लक्षणोंवाली शक्ति है। उसका नमूना जैसा कि ऊपर कहा है यूरोपमें चल रहा दारुण युद्ध है। एक देश दूसरे देशको शरीर-बलसे हराता है, इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि उसका पक्ष सच्चा है? बली मनुष्य प्राय: निर्बल मनुष्यपर अत्याचार करते देखे जाते हैं। निर्बल हार जाता है। इससे न तो उसकी अनीति सिद्ध होती है और न बली ही की नीति सिद्ध होती है। दुराग्रही साधनोंका विचार नहीं करता। उसका लक्ष्य योग्य अथवा अयोग्य साधनोंसे केवल अपनी अभीष्ट-सिद्धिकी ओर ही रहता है। यह तो धर्म नहीं, अधर्म है। धर्ममें किसी प्रकारका असत्य नहीं होता, कठोरता नहीं होती और हिंसा नहीं होती। धर्मकी नाप तो प्रेमसे, दयासे और सत्यसे होती है। इनके त्यागसे प्राप्त हुआ स्वर्ग भी निन्द्य है। सत्यके त्यागसे यदि भारत को स्वराज्य मिलता हो तो वह किसी कामका नहीं। इससे अन्तमें प्रजाका नाश ही होगा। दुराग्रही अधीर होकर अपने माने हुए वैरीका संहार करनेकी इच्छा रखता है।