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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बहुत बार उसका चेहरा गरीब गाय जैसा लगता है और कभी-कभी जैसे गाय हमें कुछ कहती-सी मालूम होती है, वैसे ही बा भी मुझे कुछ कहती-सी दीखती मैं यह भी समझता हूँ कि उसकी इस दीनतामें स्वार्थ छिपा है । इतना होते हुए भी उसकी नम्रता मुझे पराजित करती है। इसलिए जहाँ-जहाँ छूट ली जा सकती है, वहाँ-वहाँ छूट लेनेकी इच्छा हो जाती है। अभी चार दिन पहले ही बा दूधकी बातको लेकर विलाप कर रही थी कि अकस्मात् बोल उठी : 'गायका दूध भले न लें, परन्तु बकरीका दूध क्यों नहीं लिया जा सकता ? ' मैं चौंका। जब मैंने व्रत लिया था, तब बकरी तो मेरे ध्यानमें ही न थी । बकरीके दूधके उपयोगके बारेमें में उस समय बिलकुल अनभिज्ञ था और बकरीकी पीड़ा मेरी आँखोंके सामने नाचती नहीं थी । मेरा व्रत तो सिर्फ गायके दूधके लिए था। भैंसका भी मैंने विचार नहीं किया था । परन्तु भैंसका दूध लेना मेरे [ व्रत लेनेके ] मुख्य उद्देश्यको हानि पहुँचाता । बकरीके दूधके लिए ऐसी कोई बात नहीं थी, इसलिए मुझे लगा कि अब मैं बहुत हद तक मित्रोंके मानसिक क्लेशको दूर कर सकूंगा । इससे मैंने बकरीका दूध लेनेका निश्चय किया । यद्यपि एक तरहसे देखा जाये, तो बकरीके दूधके विषयमें ज्ञान प्राप्त कर लेनेके बाद मेरे व्रतकी बहुत कीमत नहीं रह जाती लेकिन वह बिलकुल नष्ट भी नहीं हो जाती । कुछ भी हो, यह छूट लेने से मुझे बहुत खुशी हुई, क्योंकि मित्रोंकी पीड़ा दिन-दिन बढ़ती जा रही थी और डॉक्टर मेहताके तारपर-तार आ रहे थे। अगर बकरीको अच्छी तरह पाला-पोसा जाये, तो उसके और गायके दूधमें कोई फर्क नहीं है । इंग्लैंडकी बकरीका दूध तो गायसे ज्यादा ताकतवर होता है, ऐसा पुस्तकों में भी लिखा है । हमारी बकरियोंका दूध हल्का माना जाता है । किन्तु वह हानिकारक होनेके बजाय लाभदायक माना जाता है। चाहे जो हो । मैंने तो जितने मुझसे उठाये जा सकते थे, उतने कदम उठा लिये हैं । मैं डॉक्टरको अपने शरीरमें संखियाकी, कुचलेकी और लोहेकी सुई भी लगाने देता हूँ । इतना होनेपर भी तबीयत न सुधरे तो हम यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि पाँच चीजोंका व्रत छोड़नेसे तबी- यत ठीक हो जायेगी । इसलिए अब किसीके लिए कुछ कहनेको नहीं रह जाता । इन सब परिवर्तनोंका क्या असर होता है, यह हमें धीरज रखकर देखना होगा । इस तरह छूट तो ले ली, लेकिन अन्तरात्मा एक क्षण भी पूछे बिना नहीं रहती, 'आखिर इतना परिश्रम किसलिए ? ' 'जीकर क्या करोगे ?' 'किस सुधारके लिए इतनी झंझट मोल ली जाये ? ' जब में जर्मनीके कैसरकी स्थितिका विचार करता हूँ, तब ऐसा लगता है कि जैसे हम कौड़ियोंसे खेलते हैं वैसे कोई महान् व्यक्ति हमारे साथ खिलवाड़ कर रहा है । एक गोलेपर चलनेवाली चींटी जितनी छोटी होती है, इस पृथ्वीके गोलेपर हम उससे भी कहीं ज्यादा छोटे हैं और चींटियोंकी तरह अज्ञानमें आगे बढ़ते रहते हैं, कुचले जाते हैं । ऐसे विचार आनेपर भी हमारे कर्त्तव्यके बारेमें मुझे एक क्षणके लिए भी शंका नहीं होती । हम प्रवृत्ति रहित होकर नहीं रह सकते, इसलिए हमारा कर्त्तव्य पारमार्थिक वृत्तिके लिये ही हो सकता है । ऐसी प्रवृत्ति करनेवाला मनुष्य परम शान्तिका अनुभव कर सकता है । हम आश्रममें भी यही प्रवृत्ति आरम्भ करें । तुम्हारे पास ज्वार बोने और बुनाईके कामके बारेमें जो सूचना आई है, उसके सम्बन्धमें जो ठीक मालुम हो,