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पत्र : अखबारोंको

परिणाम एक ही हो सकता है -- साम्राज्यके भीतर भाई-भाईके बीच घातक संघर्ष । मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्टके अनुसार सुधार हों या न हों, इस समय हमारी सबसे बड़ी जरूरत यह है कि हम इस महत्त्वपूर्ण प्रश्नके बारेमें सही और न्यायोचित निश्चयपर पहुँचें । पैबन्द लगानेकी नीतिसे सच्चा सन्तोष नहीं मिलनेका । इस वैभवशाली सिविल सर्विस संगठनको समझ लेना है कि वह भारत में भारतका नाममात्रका नहीं, वास्तविक न्यासी और सेवक बनकर ही रह सकता है। और उसी तरह बड़ी-बड़ी अंग्रेजी व्यापारिक पेढ़ियाँ भी यह बात मनमें दृढ़ कर लें कि भारतमें उसके कला-कौशल, उद्योग-धन्धेको ध्वस्त करनेके लिए नहीं, बल्कि उसकी जरूरतोंको पूरा करनेके लिए ही उनका रहना सम्भव है। इन विधेयकोंके बदले उक्त दो तरीकोंसे काम करनेमें ही समाधान है। मैं विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि इन दो उपायोंसे राज्य-विरोधी षड्यंत्रोंका मुकाबला सफलता पूर्वक किया जा सकेगा । सर जॉर्ज लाउण्डेज़ने लोकमतका अनादर करके आगमें घी ही डाला है । उन्होंने अपना भारतीय इतिहासका ज्ञान भुला दिया है, अन्यथा उन्हें यह पता होता कि वे जिस सरकारके प्रतिनिधि हैं, उसे इसके पहले भी अपने सुनिश्चित मत बदलने पड़े हैं ।

अब यह समझना आसान हो गया होगा कि क्यों में इन विधेयकोंको शासन-तन्त्रमें गहरे पैठे हुए रोगका स्पष्ट लक्षण मानता हूँ । स्पष्ट है कि इसका कोई कड़ा इलाज किया जाना चाहिए । ये विधेयक जिस भावनासे और जिन परिस्थितियोंमें प्रस्तुत किये जा रहे हैं उनके कारण हमारे जो उतावले और उग्रप्रकृति युवक अन्ततः अपना धैर्य खो बैठेंगे, वे इसके इलाजमें गुप्त हिंसात्मक कार्रवाईका रास्ता अख्तियार करेंगे । राज्यके प्रति घृणा और विद्वेषका भाव तो इन विधेयकोंसे बढ़ेगा ही । ये हिंसात्मक कार्रवाइयाँ उसीके स्पष्ट प्रमाण हैं । लेकिन प्रतिज्ञाबद्ध भारतीय अपने कष्टसहनके संकल्पके द्वारा सरकारसे, जिसके प्रति उनके मनमें कोई विद्वेषभाव नहीं है, न्याय देनेका अनुरोध करते हैं । यह अनुरोध किसी प्रकार भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता । अपने इसी संकल्पके द्वारा वे शिकायतोंको दूर करानेके लिए हिंसाकी कार्यसाधकतामें विश्वास रखनेवाले लोगोंके सामने एक अचूक अस्त्र पेश करते हैं । यह अस्त्र इसे काममें लानेवालोंके साथ साथ जिसके विरुद्ध यह काममें लाया जाता है, उसके लिए भी वरदान स्वरूप है । यदि प्रतिज्ञाबद्ध भारतीय इस अस्त्रका उपयोग करना ठीकसे जानते हों तो मुझे इससे किसी प्रकारके बुरे परिणामकी कोई आशंका है ही नहीं । और कोई कारण नहीं कि मैं उनकी योग्यतामें सन्देह करूँ । अलबत्ता पहले यह मालूम कर लेना ठीक है कि रोगने क्या सचमुच इतना भयंकर रूप धारण कर लिया है कि यह कड़ा इलाज करना जरूरी हो गया है; और क्या सारे नरम इलाजोंको आजमाकर देख लिया गया है । लेकिन उन्हें इस बातका पूरा विश्वास हो गया है कि रोग बड़ा गम्भीर है; और नरम इलाज कामयाब नहीं हो पाये हैं । शेष ईश्वराधीन है ।

आपका,

महादेव देसाईके अक्षरोंमें और गांधीजी द्वारा संशोधित अंग्रेजी मसविदे (एस० एन० ६४४०) की फोटो नकल तथा बॉम्बे क्रॉनिकल, १-३-१९१९ से ।