शिक्षा तो केवल अंग्रेजी द्वारा ही दी जाती है; इसलिए जबतक गुजरातीके माध्यमसे ऊँची शिक्षा देनेवाले शिक्षक तैयार नहीं हो जाते तबतक अंग्रेजी जाननेवालोंकी जरूरत तो पड़ेगी ही । लेकिन शालामें फिलहाल जो शिक्षक हैं उन्हें अंग्रेजीका अच्छा ज्ञान है इसलिए [ केवल ] गुजरातीका ऊँचा ज्ञान रखनेवाले शिक्षकोंको इस शालामें लिया जा सकता है और वह ऐसे शिक्षकोंको प्रोत्साहन भी देना चाहती है ।
शालाके सम्बन्धमें दो शब्द लिखे देता हूँ । उसमें तीन स्नातक [ ग्रेजुएट ] हैं और एक प्रवीण संगीत-शास्त्री है, तथा एक वैसा ही कुशल संस्कृत शास्त्री है । आश्रम और शाला साबरमतीके किनारे रमणीय स्थानपर हैं। वहाँ शिक्षकोंके लिए मकान बनाये गये हैं। शिक्षकोंको [ जितने वेतनसे ] उनका ठीक-ठीक निर्वाह हो सके उतना वेतन मिलता है । दो शिक्षक तनख्वाहकी जरूरत न होनेके कारण तनख्वाह नहीं लेते । और बाकी तीन में से सबसे ज्यादा पानेवालेको ७५ रुपये मिलते हैं । योग्य शिक्षकको [हम] अधिकसे अधिक इतने रुपये देनेकी ही स्थितिमें हैं । मेरा विश्वास है कि इस शालामें काम करनेवाले लोग इस समय छोटे लगनेवाले परन्तु आगे जाकर अधिक बड़ा फल देनेवाले प्रयोगमें भाग लेंगे । प्रयत्नकी कमीके कारण प्रयोग निष्फल नहीं होगा । मुझे उम्मीद है कि जिन्हें अध्यापनसे प्रेम है और जो अध्यापन-कार्यके माध्यमसे आजीविका कमानेपर भी अध्यापनको मुख्य और आजीविकाको गौण मानते हैं, वैसे शिक्षक इस शालाकी मददके लिए आगे आयेंगे ।
उम्मीदवारोंका शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए क्योंकि उन्हें सिखानेके साथ-साथ स्वयं भी सीखना है । उन्हें खेतीका ज्ञान होना चाहिए जो भारतकी ८० प्रतिशत जनताकी आजीविकाका साधन है, और बुनाईका काम, जिससे लाखों व्यक्ति अपनी रोजी कमाते थे, भी आना ही चाहिए । राष्ट्रीय शिक्षा देनेवालोंको हिन्दी भाषाके ज्ञानकी भी आवश्यकता है। मेरी विनम्र राय है कि कॉलेजसे निकलनेवाला युवक-समुदाय भी अपने दीर्घकालीन आर्थिक हितोंको ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय शालाके इस प्रयोगमें कूद पड़ेगा और इससे उसे कोई हानि नहीं होगी बल्कि सम्भव है, इससे उसे कुछ प्राप्ति ही हो ।
मोहनदास क० गांधी
मूल गुजराती पत्र (एस० एन० ६४३०) की फोटो नकलसे ।