१६१. पत्र : एस्थर फैरिंगको
सिकन्दराबाद
अप्रैल १, १९१९
मेरा हाथ अभी तक इतना कांपता है कि में जमाकर और लगातार नहीं लिख सकता । किन्तु लगता है कि मुझे तुमको कुछ-न-कुछ अपने हाथ ही लिखा भेजनेकी कोशिश करनी चाहिए। तुम्हें स्टेशनपर[१]मद्रास में । इसलिए मन बड़ा दुःखी हुआ। मुझे तुम्हारा और बेचारे महादेवका बहुत खयाल आया। तुम दोनों बड़े भावुक हो -- दोनों लगभग एक ही साँचेमें ढले हुए हो । जब गाड़ी चली, तब मैं भय और आशंकासे काँपते हुए खिड़कीसे बाहर झाँक रहा था। क्योंकि मुझे लगा कि गाड़ी पकड़ने के लिए महादेव इतना बेतहाशा दौड़ेगा कि कहीं थककर गिर न जाये। इसलिए जब मैंने उसे बेजवाड़ामें देखा तो मुझे बड़ी खुशी हुई।
तुमने कलक्टरको पत्र लिखना स्वीकार किया था। आशा है, तदनुसार पत्र लिख दिया होगा। मुझे बताना कि उन्होंने कोई जवाब दिया या नहीं ।
लड़कियोंसे[२] मैं रोज इस्तेमाल करूँगा। परन्तु उनसे में यह आशा रखता हूँ कि वे जल्दी ही हाथ-कते सूतसे कपड़ा बुनना सीख लेंगी और खुद कातने भी लगेंगी। चरखेका स्वर मेरे जानते किसी भी दूसरे संगीतसे अधिक मधुर है, क्योंकि आखिरकार यही वह संगीत है जिससे नंगोंको ढका जा सकता है। जब मशीनोंमें बेकार पड़े-पड़े जंग लग जायेगी ( क्योंकि मनुष्य किसी दिन मशीनोंकी बेहद तेज गतिसे ऊबकर उसका त्याग करेगा ही ) तब भी लोगोंको कपड़े की जरूरत तो होगी ही और उस समय हाथके कते सूतके कपड़े का ही प्रचलन होगा। मैं मगनलालको लिख रहा हूँ कि वह तुम्हें थोड़ा-सा हाथकता सूत भेज दे ।
हमारी गाड़ी देरसे पहुँची, इसलिए हमें जो गाड़ी पकड़नी थी, वह निकल गई । अतएव हम आज यहीं पड़े हैं--बिना किसी काम-काजके। इसी कारण तुम्हें यह पत्र लिख सका हूँ ।
मैं चाहता हूँ कि तुम अपने स्कूलमें हिन्दी जारी करो। इस सम्बन्धमें सुपरिन्टेंडेंट से