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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उन दोनोंको दलीय वक्तव्य मानेगा । मैं चूंकि जनताके पक्षका आदमी हूँ इसलिए आलोचनाकी खातिर माने लेता हूँ कि सरकारकी ओरसे प्रकाशित किया गया विवरण सत्य है । परन्तु उसमें अनेक आवश्यक बातोंका उल्लेख नहीं है जिसका अर्थ यह होता है कि संन्यासी श्रद्धानन्दजीके द्वारा स्थानीय अधिकारियोंपर लगाये गये कुछ आरोपोंका उत्तर देना टाला गया है। याद रहे कि संन्यासीजीका विवरण जनता के सामने सबसे पहले आया था । श्रद्धानन्दजी पहली बार गोलियाँ चलनेके बाद ही घटना स्थलपर जा पहुँचे थे । वे कहते हैं कि “में कुछ यूरोपीयोंके पास, जिनमें से एक सिटी मजिस्ट्रेट श्री कारी थे, गया । मैंने उनसे ठीक क्या हुआ था, यह बतानेको कहा। उन लोगोंने मेरी बातपर कोई ध्यान न दिया, श्री कारीने तो मेरी ओरसे मुँह ही फेर लिया। मैंने उन्हें सूचित किया कि यद्यपि अभी समय नहीं हुआ है, मैं लोगोंको सभा-स्थलपर लिये जा रहा हूँ । आपको यह उचित नहीं है कि आप मशीनगनों और फौजी प्रदर्शन द्वारा लोगोंके दिलोंमें डर पैदा करें ।"

मेरी विनम्र सम्मतिके अनुसार सरकारको इस आरोपके विषयमें अपने विवरणमें कुछ कहना चाहिए था। श्री कारी संन्यासी श्रद्धानन्दजीको जरूर जानते रहे होंगे - जानना तो चाहिए था । वे कोई अज्ञातनाम नवयुवक तो हैं नहीं । भारतीय जनतामें उनका एक जाना-माना स्थान है और जिस वक्त यह घटना घटी थी, उस समय इस बातका सभी लोगोंको पता था कि वे दिल्ली सत्याग्रह आन्दोलनके एक प्रमुख नेता हैं। तब सवाल उठता है कि क्या श्री कारीने श्रद्धानन्दजीकी उपेक्षा की ? गोरखे सिपाहियोंने जनताको जो धमकियाँ दी थीं, संन्यासीजीने उसका बड़ा सुस्पष्ट वर्णन किया है। मैं पूछता हूँ कि क्या गोरखोंने संन्यासीजीके सामने बन्दूकें तानी थीं ? क्या अशिष्टताके साथ उनसे यह कहा गया था कि "तुमको छेद देंगे ?" क्या इन गोरखोंमें से एकने संन्यासीजीके सामने अपनी नंगी खुखरी घुमाई थी ? उनके इस विवरणको पढ़कर यही निष्कर्ष निकलता है कि यदि अधिकारी जनतापर उसके स्वाभाविक नेताओं द्वारा नियन्त्रण पानेका प्रयत्न करते तो फौजी शक्तिके प्रदर्शन अथवा प्रयोगकी जरूरत ही न रह जाती । परन्तु गत रविवारको अधिकारियोंने नेताओंकी परवाह न करने और लोगोंमें डर पैदा करनेकी अपनी पुरानी परम्परा ही निबाही । यदि सरकारी वक्तव्यकी प्रत्येक बात सच मान ली जाये, तो [भी] जैसा कि मैं समाचारपत्रोंको भेजे गये अपने बयानमें कह चुका हूँ, निर्दोष जनतापर गोली चलानेका कोई कारण न था । आखिर, लोग कुछ करते तो बहुतसे बहुत क्या कर पाते ? यह प्रत्यक्ष है कि लोगोंके पास किसी प्रकारके भी हथियार न थे । भारतको छोड़कर संसार भरमें कोई अन्य देश ऐसा नहीं है जहाँ जनताकी भीड़को तितर-बितर करना इतना आसान हो । किसी अन्य देशमें दिल्लीकी जैसी स्थितिपर काबू पानेके लिए पुलिसको काफी माना जाता है। पुलिस भी कैसी ?-हथियारोंसे लैस नहीं, हाथोंमें केवल डंडे लिए हुए ।

डर्बनकी एक घटना

मुझे एक घटनाकी याद आ रही है । ६,००० यूरोपीयोंकी एक भीड़, जिसे उनके नेताओंने बहकाकर बहुत उत्तेजित कर दिया था, एक निरपराध व्यक्तिपर टूट पड़ना चाहती थी और उसका काम तमाम कर डालना चाहती थी । आक्रमणकारियोंने