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भाषण : चौपाटी, बम्बईकी सभा में


उस व्यक्तिका बहुत पीछा किया और आखिर वह एक मित्रके घरमें जा छिपा जो उसीमें रहता था और अपनी दुकान भी चलाता था। तीसरे पहर यूरोपीयोंकी वह भीड़ दृढ़तापूर्वक उस मकानकी ओर बढ़ी और उसने माँगकी कि हमारा शिकार हमारे हवाले किया जाये वरना दुकानमें आग लगा दी जायेगी। लगभग बीस व्यक्तियोंकी-पुरुषों, स्त्रियों और बालकोंकी -जानें खतरे में थीं । बीस हजार पौंडका माल जला दिया गया होता। यदि फौजको बुलाना कभी उचित माना जा सकता तो यह वैसा ही अवसर था । परन्तु डर्बनके पुलिस अधीक्षकने फौजकी सहायता न माँगी। वह एक दर्जन पुलिसके जवानोंको अपने साथ लेकर भीड़के भीतर जा घुसा ; उसने उन संकटग्रस्त व्यक्तियों और उस सम्पत्तिकी हिफाजत की और उन लोगोंसे तीन घंटे जूझनेके पश्चात् वह उस छिपे हुए व्यक्तिको चुपकेसे बाहर निकाल ले गया और उसे थाने में पहुँचा दिया तथा आक्रमणकारियोंकी भीड़को भंग करनेमें भी सफल हो गया । यह घटना १३ जनवरी, १८९७ की है और डर्बनमें[१]हुई थी । डर्बनकी उत्तेजित भीड़ कुछ ठाने बैठी थी, दिल्लीकी भीड़के मनमें तो कुछ था ही नहीं । उसने किसी प्रकारकी धमकी नहीं दे रखी थी; सरकारी वक्तव्यके अनुसार बात फकत इतनी थी कि उसने तितर-बितर होनेसे इनकार किया था ।

अधिकारी निश्चय ही फौजकी सहायता लिये बिना स्टेशनकी रक्षा कर सकते थे और बादमें भीड़को यों ही छोड़ दे सकते थे । परन्तु दुर्भाग्यवश, समूचे भारतवर्षमें यह प्रथा चल पड़ी है कि छोटी-छोटी बातोंके लिए फौज बुला ली जाती है। मैं इस बातको और अधिक विस्तारसे कहना नहीं चाहता । हम लोगोंके लिए इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि भीड़के किसी भी भाग द्वारा किसीका कोई नुकसान नहीं किया गया था और भीड़ इस अवसरपर न तो आतंकित थी और न कोधित । वह न केवल दृढ़ और शान्त बनी रही, बल्कि इस घातक गोलीकाण्डके तुरन्त बाद उसने एक सार्वजनिक सभाका आयोजन किया जिसमें कहा जाता है, ४० हजार लोग शरीक हुए थे। हम कह सकते हैं कि भीड़का व्यवहार सर्वथा स्तुत्य था और यह ऐसी घटना है जिसके बारेमें समय आने पर भारत गर्व करेगा । संन्यासी श्रद्धानन्दजी और हकीम अजमलखाँ अपनी कारगर और बहादुराना लीडरीके लिए हमारे आदरके पात्र हैं । पिछले कुछ दिनोंमें मैंने यह कई बार कहा है कि संघर्ष में भाग लेनेवाले लोगोंके द्वारा अशान्ति या हिंसा की जानेका जरा भी अंदेशा मेरे मनमें नहीं है। जो कुछ दिल्लीमें हुआ उससे मेरे आशावादको पुष्टि मिलती है। मैंने यह तो कभी सोचा ही नहीं था कि सत्याग्रहियों और उनके सहयोगियोंको कभी अपना रक्त बहाना ही नहीं पड़ेगा। अलबत्ता, मैं स्वीकार करता हूँ कि दिल्लीके अधिकारियों द्वारा बरती गई "सख्त कार्रवाई" मेरे लिए अप्रत्याशित थी । लेकिन सत्याग्रहियोंको तो इसका स्वागत ही करना चाहिए। इतना ही नहीं, कार्रवाई जितनी ज्यादा सख्त हो उतना ही अच्छा, क्योंकि सत्याग्रहियोंने तो मृत्युका भी स्वागत करनेकी प्रतिज्ञा की है । इसलिए जो मुसीबत हम लोगों पर बरपा की गई है उसके खिलाफ कुछ भी कहनेका हमें हक नहीं है।

 
  1. १. देखिए आत्मकथा, खण्ड ३, अध्याय ३ ।