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स्वदेशी व्रत—१

करेंगे। इतने महत्त्वपूर्ण परिणामोंकी प्राप्ति बिना कठिनाईके नहीं हो सकती; मार्गमें बाधाएँ आयेंगी ही। आसानीसे हासिल की गई चीजोंकी लगभग कोई कीमत नहीं होगी। लेकिन इस व्रतका पालन करना चाहे जितना भी कठिन हो, अगर हम चाहते हैं कि हमारा देश पूर्ण विकासको प्राप्त हो तो आज या कल हमें इस कठिनाईको झेलना ही पड़ेगा। और इस व्रतको हम तभी पूरा कर सकेंगे जब इस बातको अपना धार्मिक कर्त्तव्य समझने लगेंगे कि हमें ऐसे कपड़े ही पहनने हैं जो पूरी तरह हमारे देशमें तैयार किये गये हैं और अन्य सभी तरहके कपड़ेका उपयोग बन्द कर देना है।

अविचारपूर्ण निष्कर्ष

मित्र लोग कहते हैं कि अभी हमारे पास इतना काफी देशी कपड़ा नहीं है कि हमारी सारी जरूरत पूरी हो सके और जो मिलें अभी मौजूद हैं, वे इस दृष्टिसे बहुत कम पड़ती हैं। मुझे तो लगता है कि यह निष्कर्ष बिना सोचे-विचारे जल्दीमें निकाला गया है। हम ऐसी सौभाग्यपूर्ण स्थितिकी अपेक्षा तो नहीं कर सकते कि तीस करोड़ मनुष्य एक ही साथ यह व्रत ले लें। अत्यन्त आशावादी व्यक्ति भी अभी तो लाखोंकी संख्याकी ही अपेक्षा रख सकता है, और मुझे उनके लिए पूरा कपड़ा जुटाने में कठिनाई नहीं दीखती। परन्तु यह तो अलग बात हुई। जहाँ सवाल धर्मका हो, वहाँ कठिनाइयोंके बारेमें सोचनेकी गुंजाइश नहीं रहती। भारतकी सामान्य जलवायु ऐसी है कि उसमें हम बहुत कम कपड़ोंसे गुजर कर सकते हैं। यह कहनेमें अत्युक्ति नहीं है कि हममें मध्यम वर्गके तीन चौथाई लोग बहुत सारे कपड़ोंका अनावश्यक उपयोग करते हैं। फिर जब बहुत से लोग यह व्रत ले लेंगें, तब बहुतसे चरखे और करघे चलने लगेंगे। भारतमें असंख्य बुनकर तैयार किये जा सकते हैं। उन्हें सिर्फ समुचित प्रोत्साहन देनेकी देर है। मुख्यतः दो चीजोंकी ही जरूरत है, त्यागकी और ईमानदारीकी। यह तो स्वयंसिद्ध बात है कि व्रत लेनेवालोंमें ये दोनों गुण होने ही चाहिए। परन्तु एक ऐसे महान् व्रतका पालन लोग अपेक्षाकृत आसानीसे कर सकें, इसके लिए व्यवसायियोंमें भी इन गुणोंका होना जरूरी है। ईमानदार और त्यागी व्यवसायी केवल देशकी रुईका ही सूत कतवायेंगे और उसीसे कपड़ा बुनवायेंगे। रंग भी वही काममें लायेंगे जो भारतमें तैयार होते हैं। जब मनुष्य कोई काम न करना तय कर लेता है तो वह अपने मार्गकी कठिनाइयोंको दूर करनेकी योग्यता भी अपने में विकसित कर ही लेता है।

विदेशी वस्त्रोंको नष्ट कर दो

यही काफी नहीं है कि जरूरत पड़ने पर हम कमसे कम कपड़ोंसे काम चला लें। इस व्रतका पूरी तरह पालन करनेके लिए यह भी जरूरी है कि हमारे पास जितने विदेशी कपड़े हों, सबको नष्ट कर दें। यदि हमें यह विश्वास हो गया हो कि हमने विदेशी वस्त्रोंका उपयोग करके अपराध किया है, भारतकी अपार हानि की है, जुलाहोंके पूरे वर्गका नाश किया है, तो ऐसे पापसे सने कपड़े नष्ट करने लायक ही हैं। इस सम्बन्धमें हमें स्वदेशी और बहिष्कारका भेद समझ लेनेकी आवश्यकता है। स्वदेशी एक धार्मिक विचार है। यह प्रत्येक मनुष्यका स्वाभाविक कर्त्तव्य है। उसपर लोक-कल्याणकी बात निर्भर करती है और इसलिए स्वदेशी व्रत बदलेकी भावना या सजा देनेके इरादेसे लिया ही नहीं