पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 15.pdf/२३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



२०७
स्वदेशी व्रत - २

परेशानियोंसे बच सकेंगे, अपनी बहुत-सी जरूरतोंको कम कर लेंगे और हमारा जीवन सुख और सौन्दर्यका समन्वय बन जायेगा। मेरे कानोंमें हमेशा यह दिव्य वाणी गूंजती रहती है कि किसी समय भारतमें ऐसा जीवन एक वास्तविकता थी, लेकिन अगर इस प्रकारका प्राचीन भारत कवियोंकी कल्पना मात्र हो, तो भी कुछ हर्ज नहीं। क्या अब वैसे भारतका निर्माण करना आवश्यक नहीं है, क्या इसीमें हमारा पुरुषार्थं निहित नहीं है ? मैं हिन्दुस्तान भरमें सफर करता रहा हूँ। मुझसे गरीबोंकी हृदय विदारक आहें नहीं सुनी जातीं। बूढ़े और जवान, सभी मुझसे कहते हैं कि "हमें सस्ता कपड़ा नहीं मिलता, महँगा खरीदनेकी हमारी हैसियत नहीं। अनाज, कपड़ा सभी कुछ महँगा है--हम क्या करें?" वे निराश होकर उसाँसें भरते हैं। मेरा धर्म है कि मैं उन्हें कुछ सन्तोषजनक उत्तर दूँ। देशके प्रत्येक सेवकका यही धर्म है। किन्तु मैं उन्हें सन्तोषजनक उत्तर देनेमें असमर्थ हूँ। हर विचारशील भारतीय के लिए यह बात असहनीय होनी चाहिए कि हमारे देशका कच्चा माल यूरोप भेज दिया जाये और हमें उसके लिए भारी कीमत चुकानी पड़े। इसका अव्वल और आखिरी इलाज स्वदेशी ही है। हम अपनी रुई किसीके हाथ बेचनेके लिए मजबूर नहीं हैं, और जब हिन्दुस्तान में स्वदेशीकी ध्वनि गूंज उठेगी तो कोई भी रुई-उत्पादक दूसरे मुल्क में कपड़ा बनानेके लिए अपना माल न बेचेगा। जब स्वदेशीका मन्त्र देश भरमें व्याप्त हो जायेगा तब हरएक आदमी यह सोचने लगेगा कि जिस देशमें रुई पैदा होती है उसकी ओटाई-तुनाई, कताई-बुनाई उसी देशमें क्यों न की जाये ? और जब स्वदेशीका मन्त्र हरएक कानमें पहुँच जायेगा, तो भारतके आर्थिक उद्धारकी कुंजी करोड़ों आदमियोंके हाथोंमें पहुँच जायेगी। इस बातको सीखनेके लिए हमें सैकड़ों वर्षोंका समय नहीं चाहिए। जब धर्मका बोध जाग उठता है तो लोगोंके विचार क्षण-भरमें बदल जाते हैं। इसकी केवल एक अनिवार्य शर्त है -- निःस्वार्थ त्याग। त्याग और बलिदानका भाव इस समय भारतमें व्याप्त है। यदि हमने इस उत्तम अवसरपर स्वदेशीका प्रचार न किया तो निराशामें ही हाथ मलते रह जायेंगे। ऐसे प्रत्येक हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई और यहूदीसे जो भारतको अपना देश समझता है मैं प्रार्थना करता हूँ कि वह स्वदेशीका व्रत ले और दूसरोंसे भी लेनेको कहे। मेरे नम्र विचारमें, अगर हम अपने देशके लिए इतना भी नहीं कर सकते तो हमारा यहाँ जन्म लेना व्यर्थ है। जो लोग अच्छी तरह सोच सकते हैं वे देख सकेंगे कि ऐसी स्वदेशी में ही विशुद्ध अर्थनीति निहित है। मुझे आशा है कि प्रत्येक स्त्री-पुरुष मेरे इस नम्र निवेदनपर गम्भीरताके साथ विचार करेगा। अंग्रेजी आर्थिक व्यवस्थाकी नकल करनेका परिणाम हमारे लिए विनाशकारी होगा।

[ अंग्रेजीसे ]

बॉम्बे क्रॉनिकल, १८-४-१९१९

न्यू इंडिया, २२-४-१९१९