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सन्देश:देशभाइयोंके नाम

यह हुक्म तामील किया, उससे मैंने बेहिचक कह दिया कि मैं इस हुक्मकी उदूली करनेको अपनी प्रतिज्ञासे बँधा हूँ। मैंने यह हुक्म-उदूली कर भी दी है, अब यद्यपि मैं तुरन्त सरकारी हिरासत में ले लिया जाऊँगा, किन्तु मैं मन और आत्मासे एक स्वतन्त्र व्यक्ति बन जाऊँगा। ऐसी हालतमें, जब रौलट-कानून हमारे देशकी विधिसंहिताको विरूपित कर रहे हों, बाहर मुक्त रहना मेरे लिए घोर अपमानकी बात थी। गिरफ्तार होकर मैं स्वतन्त्र हो गया हूँ। अब आप सबको सत्याग्रहका अपना कर्त्तव्य निभाना है—जो कि सत्याग्रहकी प्रतिज्ञामें स्पष्ट बता दिया गया है। आप उसका पालन करें, और तुरन्त आपको पता चल जायेगा कि वह कामधेनुरूप है।

मैं आशा करता हूँ कि मेरी गिरफ्तारीसे आप क्षुब्ध नहीं होंगे। मैं जो कुछ चाहता था, मुझे मिल गया है—मैं यही तो चाहता था कि या तो रौलट कानून रद कर दिये जायें या में कैद कर लिया जाऊँ। सत्यसे रंचमात्र भी डिगनेसे या किसीके विरुद्ध, चाहे वह अंग्रेज हो या हिन्दुस्तानी, हिंसा करनेसे उस महान् उद्देश्यकी बड़ी हानि होगी, जिसे लेकर सत्याग्रही चल रहे हैं। मुझे आशा है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता, जिसकी जड़ें लोगोंमें इस समय अच्छी तरह जमी हुई दिखाई देती हैं, वास्तविकता बन जायेगी, और मुझे विश्वास है कि मैंने अखबारोंमें जो सुझाव दिये हैं, उनपर अच्छी तरह अमल किया जाये; तभी ऐसा हो सकता है। इस मामलेमें मुसलमानोंसे हिन्दुओंकी जिम्मेदारी ज्यादा है, क्योंकि मुस्लिम जाति अल्पसंख्यक है। मैं आशा रखता हूँ, हिन्दू अपनी जिम्मेदारी देशके गौरवके अनुरूप ढंगसे निभायेंगे। मैंने प्रस्तावित स्वदेशी व्रतके बारेमें कुछ सुझाव दिये हैं। मेरा अनुरोध है कि आप उनपर गम्भीरतापूर्वक ध्यान दीजिए। आपके सत्याग्रह सम्बन्धी विचार ज्यों-ज्यों परिपक्व होते जायेंगे, त्यों-त्यों आपको मालूम होता जायेगा कि हिन्दू-मुस्लिम एकता सत्याग्रहका ही अंग है।

और अन्तमें मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हम मुक्ति पायेंगे तो केवल अपने कष्ट सहनसे, न कि इंग्लैंडसे टपक पड़नेवाले सुधारोंके जरिये, भले ही वे कितने ही खुले दिलसे दिये जायें। अंग्रेज जाति महान् है, परन्तु यदि कमजोर लोग उसके सम्पर्क में आते हैं, तो उन्हें दबना भी पड़ता है। अंग्रेज लोग खुद बड़े बहादुर हैं और वे स्वयं असीम कष्ट झेल चुके हैं, इसलिए वे बहादुरी और कष्ट सहनकी ही कद्र करते हैं; और उनके साथ हम बराबरीके साझेदार तभी बन सकेंगे जब हम अपने भीतर अदम्य उत्साह और कष्ट सहनकी असीमित क्षमता विकसित कर लेंगे। उनकी और हमारी संस्कृतिमें एक बुनियादी फर्क है। उनके लिए किसी भी बातमें अन्तिम निर्णायक तत्त्व हिंसा या पशुबल है। किन्तु अपनी संस्कृतिके विषयमें मेरा विचार यह है कि हमसे अन्तिम निर्णायक तत्त्वके रूपमें आत्मबल या नैतिक बलमें विश्वास रखनेकी आशा की जाती है और यही है सत्याग्रह। आज हम ऐसे कष्टोंसे पीड़ित हैं, जिनसे अगर हमारा बस होता तो हम छुटकारा पाना चाहते; और इस दुःखका कारण यह है कि हमारी प्राचीन संस्कृतिने हमें जो मार्ग बताया है, उस मार्गसे हम विचलित हो गये हैं।